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बड़ी खामोशी से वो कर रहें हैं गुफ्तगू
मगर सब सुन रहे हैं ये उन्हें मालूम नहीं !!

मोहब्बत के खिलें हैं फूल जिनके दर्मियाँ
वो काँटे चुन रहे हैं ये उन्हें मालूम नहीं !!

यूँ शब भर जागकर सौदाई बन तन्हाई का
गलीचा बुन रहे हैं ये उन्हें मालूम नहीं !!

किये हैं ज़ब्त, वादों में जो रिश्ते प्यार के
वो रिश्ते घुन रहें हैं ये उन्हें मालूम नहीं !!

वो हमसे पूंछते हैं इश्क करने की वज़ह
मोहब्बत बेवज़ह है ये उन्हें मालूम नहीं !!

मोहब्बत के बने बैठे हैं मीर,अंजुमन में -
असल में इश्क क्या है खुद उन्हें मालूम नहीं है !!

लगाके दिल खता कर बैठें हैं वो शौक में
कि इसकी क्या सजा है ये उन्हें मालूम नहीं !!

जिन्हें मालूम है वो लिख रहें हैं शायरी
रुक्न-ओ-बहर क्या है ये उन्हें मालूम नहीं !!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by दिगंबर नासवा on February 20, 2019 at 12:13pm

आपकी कहन ठीक है ... मौलिक विचार हैं आपके पास ...  इसको ग़ज़ल के अंदाज़ में लिखने का प्रयास करें तो जरूर सफल होंगी ...

इस मंच पर उपलब्ध जानकारी और आदरणीय समर साहब से मार्गदर्शन ले के प्रयास करें ... जल्दी ही अच्छी ग़ज़ल और शेर कह पाएंगी आप ... बहुत शुभकामनायें ... 

Comment by Samar kabeer on February 19, 2019 at 2:33pm

मुहतरमा रक्षिता सिंह जी आदाब,क्या ये ग़ज़ल है? अगर हाँ तो इसके अरकान क्या हैं?

'गलीचा बुन रहे हैं ये उन्हें मालूम नहीं'

इस पंक्ति में 'गलीचा' ग़लत शब्द है,सहीह शब्द है "ग़ालीचा" ।

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