नारी तो केवल है नारी है
नर भी तो केवल है नर
दोनोँ के विचार अलग हैं
दोनोँ के किरदार अलग
ना इसका कुछ हिस्सा ज्यादा
ना ही उसका है कुछ कम
कभी कभी लगता है ऐसे
जैसे जीवन निपट अधूरा
निकट तो हो लेकिन लगता है
नभ पर तुमने डाला डेरा
ऐसा है फिर भी जीवन में
उठ्ती रहती सतरंगी तरंग
पथगामी दोनोँ एक पथ के
चलते किंतु अलग अलग
कभी कभी व्यहार वो करते
जैसे घर में रहता कोई मलंग
लक्ष्य मगर दोनोँ का एक है
कभी ना हारे शिशु कोई जंग
.
-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकशित
Comment
नमस्कार अमित जी
धन्यवाद समर जी
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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