ढलती जाती उम्र में, डगमग होती नाव।
कभी-कभी नैराश्य के, आ जाते हैं भाव।।
आ जाते हैं भाव, और दुख होता भारी।
लगने लगती व्यर्थ, तभी यह दुनियादारी।।
जीर्णशीर्ण यह नाव,चले हिचकोले खाती।
घिरता है अवसाद, उम्र जब ढलती जाती।।
2-
माला फेरी उम्रभर, तीरथ किए हजार।
काम क्रोध मद मोह से, पाया कभी न पार।।
पाया कभी न पार, जिन्दगी व्यर्थ गँवाई।
बीत गई अब उम्र, विदा की बेला आई।।
मन में रखकर द्वेष, बैर अपनों से पाला।
धुला न मन का मैल,जपी निसदिन ही माला।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब।
हार्दिक आभार आदरणीय विजय निकोरे जी।
हार्दिक आभार आदरणीय आमोद श्रीवास्तव जी।
आ सर ..बेहतरीन ...नमन
कुण्डलिया छन्द अच्छा लिखा है। बधाई, आदरणीय हरिओम जी।
जनाब हरिओम श्रीवास्तव जी आदाब,अच्छे कुण्डलिया छन्द हुए,बधाई स्वीकार करें ।
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