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समय के साथ भी सीखा गया है ।

122-2122-2122


समय के साथ भी सीखा गया है ।।
ये गुजरा दौर भी बतला गया है ।।

मेरी मजबूरियां अब मत गिनो तुम ।
मेरे संग हो तो सब देखा गया है ।।

सभी उस्ताद बनकर ही नहीं हैं।
मुझे अधभर में ही रख्खा गया है ।।

ये तेरा प्रेम कब छूटेगा मुझसे ।
मेरे चहरे में ये बस सा गया है ।।

मेरे भी चाहने वाले मिलेंगे।
मुझे कहकर यही बिछड़ा गया है ।।

कभी वो इन्तेहाँ मेरा भी ले ले।
जो मंजिल की तरफ रस्ता गया है।।

सलोना मुस्कुराता एक चहरा ।
मुकम्मल झूठ पर पहना गया है।।

जमाना क्या कहेगा क्या सुनेगा ।
नसीहत को सदा रौंदा गया है।।

कोई कमजोर तबक़ा कब उठा है ।
सियासी खेल पर खेला गया है।।

आमोद बिंदौरी / मौलिक अप्रकाशित

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Comment by दिगंबर नासवा on April 19, 2019 at 8:08pm

अच्छा प्रयास है गजल का ...  आदरणीय लोगों की बातें गिरह बाँध लें ... विचारों को धार खुद मिलेगी ...

Comment by amod shrivastav (bindouri) on April 19, 2019 at 9:12am

आ सलीम साहब आदाब
जी सर अरकान गलत हुआ है/

मुझे फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन समझ आई थी

मुझसे रुक्न बनाने में गलती हुई,मार्ग दर्शन के लिए शुक्रिया सर , अगली बार से रुक्न अरकान परिवार की पहचान पर भी ध्यान दूंगा 

Comment by SALIM RAZA REWA on April 18, 2019 at 10:00pm
आमोद जी ग़ज़ल के लिए बधाई स्वविकारें,
अरकान ग़लत लिखा है.. अरकान
1222 1222 122 है सही कर लें,
शेरों में तुक बंदी के साथ शेरियत पैदा करें,
Comment by amod shrivastav (bindouri) on April 18, 2019 at 11:14am

आ समर दादा प्रणाम

जी दादा कोशिश तो हर बार करता हु की रचना में कमियां को कम क्र पाउ पर ऐसा अल्पज्ञान के कारण हो नहीं प् है। बहर भेद, शिल्प , व्याकरण और दोष के साथ अपना कहन सुधारने का लक्ष में हूँ।

Comment by Samar kabeer on April 17, 2019 at 6:17pm

जनाब आमोद बिंदौरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

हमेशा की तरह शिल्प और व्याकरण के दोष हैं कई अशआर में,उन पर क़ाबू पाने का प्रयास करें ।

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