अहीर छंद "प्रदूषण"
बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।
यह दावानल आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।
मनुज दनुज सम होय।
मर्यादा वह खोय।।
स्वारथ का बन भृत्य।
करे असुर सम कृत्य।।
जंगल करत विनष्ट।
सहे जीव-जग कष्ट।।
प्राणी सकल कराह।
भरते दारुण आह।।
यंत्र-धूम्र विकराल।
ज्यों यह विषधर व्याल।।
जकड़ जगत निज दाढ़।
विपदा करे प्रगाढ़।।
दूषित वायु व नीर।
जंतु समस्त अधीर।।
संकट में अब प्राण।
उनको कहीं न त्राण।।
प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।
सकल विश्व अब त्रस्त।।
अन्धाधुन्ध विकास।
आया जरा न रास।।
विपद न यह लघु-काय।
पर अब जग-समुदाय।।
मिलजुल करे उपाय।
तब यह टले बलाय।।
(यह 11 मात्रा का छंद है जिसका अंत जगण 121 से होना आवश्यक है)
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत खूबसूरत छंद बहुत सुन्दर निर्वाह
हार्दिक बधाई
जनाब बासुदेव अग्रवाल 'नमन'जी आदाब, अच्छे छन्द हुए हैं,बधाई स्वीकार करें ।
आ0 सुशील सारना जी आपका बहुत बहुत आभार।
आदरणीय वासुदेव जी अति सुंदर और प्रवाहमयी सृजन के लिए दिल से बधाई ।
आ0 गोपाल नारायण जी आपका बहुत बहुत आभार।
आ०, ग्यारह सम मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरणात में १२१ अनिवार्य का कुशल निर्वाह i इस छंद की एक धुन भी है ,जिसमे प्रवाह होता है जैसे
ओ मेरे मनमीत
दिल मेरा तू जीत
गा जीवन के गीत
मुझे मिले नवनीत
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