छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :
पहला :
"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"
दूसरा :
"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"
फ़िर तीसरा बोला :
"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"
दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक रेलगाड़ी का खेल भी नहीं खेल रहे थे! वे तो अपने-अपने मटमैले थैले और बोरियां समेटे दैनिक रद्दी-संग्रह-पदयात्रा पर रवाना होने वाले थे।
उनमें से पहला बच्चा बोला :
"भूख लगी, भैया भूख लगी; अम्मा तो जाने कहाँ चली!"
दूसरे ने कहा :
"झटपट-झटपट हाथ-पैर चलाओ; कूड़ा-कड़कट में सेंध लगाओ!"
कुछ अधिक उम्र वाले तीसरे ने उन दोनों के कंधे पर हाथ रखकर कहा :
"न अली; न महाबली! अपनी दुनिया अपन से चली!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदाब। इस हौसला अफ़ज़ाई हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब। हार्दिक आभार सभी व्यूअर्स के प्रति।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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