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एक ताज़ा ग़ज़ल
आदमी सोच के कुछ चलता है,दुनिया में हो जाता कुछ।
मानव की इच्छाएं कुछ है, अर मालिक का लेखा कुछ ।
अपने अपने दुख के साये मैं हम दोनों जिंदा है ,
तू क्या समझे,मैं क्या समझूं, तेरा कुछ है, मेरा कुछ ।
दुनिया के ग़म ,रब की माया और सियासत की बातें ,
खुद से बाहर आ सकता तो, इन पर भी लिख देता।
एक जरा सी बात हमारी हैरानी का कारण है,
ख्वाब में हमने कुछ देखा था ,आंख खुली तो देखा कुछ।
हम तो अपने सपनों को सच करने में नाकाम रहे,
मेरी बेटी तू अंबर की छाती पर लिख देना कुछ ।
सबसे पहले खुद से लड़ना पड़ता है इस दुनिया में ,
खुद को हासिल करने पर ही दुनिया से मिलता है कुछ ।
जाने क्या क्या लिख कर हमने अपने दिल को समझाया,
अहसास हमारी तहरीरों में कुछ सच्चा था, झूठा कुछ।
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय दिगंबर जी और आदरणीय लक्ष्मण जी ग़ज़ल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय समर कबीर साहब
बेशकीमती इस्लाह के लिए हार्दिक आभार
ग़ज़ल आपके सामने आते ही मैं निश्चिन्त हो जाता हूँ कि अब सब दोष निकल जाएंगे
सादर नमन
आ. भाई मनोज जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई । आ. भाई समर जी के सुझाव से गजल और निखर जायेगी।
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'आदमी सोच के कुछ चलता है,दुनिया में हो जाता कुछ'
इस मिसरे में 'आदमी' की जगह "इंसाँ" कर लें,गेयता बढ़ जाएगी ।
'मानव की इच्छाएं कुछ है, अर मालिक का लेखा कुछ'
इस मिसरे में 'इच्छाएं' बहुवचन है,इसलिए 'है' को "हैं" कर लें ।
'खुद से बाहर आ सकता तो, इन पर भी लिख देता'
इस मिसरे में आप रदीफ़ लिखना भूल गए ।
'हम तो अपने सपनों को सच करने में नाकाम रहे,
मेरी बेटी तू अंबर की छाती पर लिख देना कुछ'
इस शैर में शुतरगुरबा दोष देखें,ऊला मिसरे में 'हम' की जगह "मैं" और 'रहे' की जगह "रहा" कर लें,ऐब निकल जायेगा ।
'खुद को हासिल करने पर ही दुनिया से मिलता है कुछ '
इस मिसरे में रदीफ़ बदल गई है,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'खुद को हासिल करने पर ही दुनिया से मिल पाता कुछ '
अच्छी ग़ज़ल हुई है मनोज जी ...
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