जनाब अहमद फराज़ साहब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल
221 1221 1221 122
बुझते हुए दीये को जलाने के लिए आ
आ फिर से मेरी नींद चुराने के लिए आ //१
दो पल तुझे देखे बिना है ज़िंदगी मुश्किल
मैं ग़ैर हूँ इतना ही बताने के लिए आ //२
तेरे बिना मैं दौलते दिल का करूँ भी क्या
हाथों से इसे अपने लुटाने के लिए आ //३
तेरा ये करम है जो तू आता है मेरे पास
मुझपे यही एहसान जताने के लिए आ //४
मुमकिन जो नहीं ज़िंदगी में तू कभी आए
तो आ, मेरी मय्यत ही उठाने के लिए आ //५
तू हो चुकी है ग़ैर की कह भी नहीं सकता
सब छोड़ मुझे अपना बनाने के लिए आ //६
मैं हो चुका हूँ ख़ाके वफ़ा बस ये करम कर
गंगा में मेरी मिट्टी बहाने के लिए आ //७
आदत पड़ी है 'राज़' को गिर्या ए सितम की
कुछ भी नहीं तो दिल ही दुखाने के लिए आ //८
~ राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
ठीक है ।
आदरणीय जनाब समर कबीर साहब, आपकी इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया. शम्मा की जगह दीया कर रहा हूँ, शायद बात बन जाए. सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर
जनाब राज़ नवादवी जी आदाब,'अहमद फ़राज़' की ज़मीन में ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'बुझती हुई शम्मा को जलाने के लिए आ'
इस मिसरे में "शम'अ" को 22 पर लिया है,जो सहीह नहीं है,इसका वज़्न 21 है,देखियेगा ।
आ. भाई राजनवादवी जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह साहब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया. आदर
आद0 राज नवादवी साहब सादर अभिवादन। बढ़िया और खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने। शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद कुबुल करें
आदरणीय सुशील सरना जी, हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर.
वाह जनाब राज नवादवी साहिब वाह खूबसूरत अहसासों को बयाँ करती शानदार ग़ज़ल। दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
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