1-
राह बताते और को, स्वयं लाँघते भीत।
जग का यही विधान है,यही आज की रीत।।
यही आज की रीत, सभी को प्रवचन देते।
लेकिन वही प्रसंग, अमल में कभी न लेते।।
खुद करते पाखंड, दूसरों को भरमाते।
स्वयं छोड़ते लीक, और को राह बताते।।
2-
देखा मैंने आज के, जग का यही विधान।
आभासी संसार में, सारे कृपानिधान।।
सारे कृपानिधान, मचा है रेलमपेला।
अगणित गुरुघंटाल, नहीं है कोई चेला।।
क्या करता है कौन,फेसबुक में सब लेखा।
यहाँ बाँटते ज्ञान, सभी को मैंने देखा।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**
-- दि.02.05.2019 -
Comment
"हार्दिक आभार आदरणीय Samar Kabeer साहब। आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।"
"हार्दिक आभार आदरणीय Sushil Sarna जी। आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।"
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी। आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।
आद0 हरिओम श्रीवास्तव जी सादर अभिवादन। बहुत ही बेहतरीन रचना पढ़ने को मिली। इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये
वाह आदरणीय हरी ओम जी वाह , वर्तमान आचार-व्यवहार के यथार्थ को चित्रित करती अति सुंदर एवं सार्थ कुंडलियाँ। हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
जनाब हरिओम श्रीवास्तव जी आदाब, अच्छे कुण्डलिया छन्द लिखे आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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