खेती में घाटा हुआ, कृषक हुए मजबूर।
क्षुधा मिटाने के लिए, बने आज मजदूर।।
बने आज मजदूर, हुए खाने के लाले।
चले गाँव को छोड़, घरों में डाले ताले।।
खाली है चौपाल, गाँव में है सन्नाटा।
फाँसी चढ़े किसान, हुआ खेती में घाटा।।
2-
बिकने को बाजार में, खड़ा आज मजदूर।
फिर भी देश महान है, उनको यही गुरूर।।
उनको यही गुरूर,नहीं अब रही गरीबी।
वह खुद हुए धनाड्य,साथ में सभी करीबी।।
नेता शासक वर्ग, सभी लगते घट चिकने।
लेते आँखें मूँद, खड़ा है मानव बिकने।।
[मौलिक व अप्रकाशित]
**हरिओम श्रीवास्तव**
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी।
हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी। मजदूर व मजबूर से भारत को मुक्ति मिले या न मिले आदरणीय, पर मैं आगे से अवश्य ध्यान रखूँगा। हा हा हा
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुरुक्षत्रप' जी।
आद0 हरिओम श्रीवास्तव जी सादर अभिवादन। बढिया कुण्डलिया रची आपने, बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीय हरिओम श्रीवास्तव जी, आपकी प्रस्तुतियों से जो भावबोध निस्सृत हो रहा है, वह आजके रचनाकर्म को भी गरिमामय कर रहा है. मज़दूर और मज़बूर की तुकान्तता से समाज को जितनी शीघ्रता से छुटकारा मिले भारत देश का भला होगा.
आपकी दोनों कुण्दलियों के कथ्य आजके यथार्थ को सशक्तता से अभिव्यक्त कर रहे हैं. हार्दिक बधाइयाँ
सादर
आ. भाई हरिओम जी, बहुत ही सार्थक दोहे हुए हैं । हार्दिक बधाई।
"हार्दिक आभार आदरणीय Samar Kabeer जी। आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।"
जनाब हरिओम श्रीवास्तव जी आदाब,मज़दूर दिवस पर अच्छे कुण्डलिया छन्द लिखे आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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