स्वप्न के सीवान में ज़ुल्फ़ों के बादल छा गए
चाँद क्या आया नज़र हम दिल गँवा कर आ गए।।
चूम कर नज़रों से नज़रें, गुदगुदा कर मन गई
रूपसी जादू भरी थी मन की अभिहर* बन गई
तन सुरभि का यूँ असर खुद को भुला कर आ गए
चाँद क्या आया नज़र हम दिल गँवा कर आ गए।।
मन्द सी मुस्कान उसके होठों पर जैसे खिली
इस हृदय की बन्द साँकल खुद अचानक से खुली
हम मनस में रूप उसका लो सजा कर आ गए
चाँद क्या आया नज़र हम दिल गँवा कर आ गए।।
चाल हिरनी बात जैसे छंद मानस का सरल
स्वर मधुर ऐसे कि जैसे मीर की कोई ग़ज़ल
सो उसे हम प्रीत की सरगम सिखा कर आ गए
चाँद क्या आया नज़र हम दिल गँवा कर आ गए।।
*अभिहर====हरने वाली
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर, सादर प्रणाम
दोष पकड़ने की कोशिश करता हूँ
वाह ! वाह !!
भाई पंकज जी, व्याकरण सम्मत दोषों पर ध्यान देंगे।
शुभातिशुभ
वाह,वाहहह,अतिसुंदर गीत है आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा 'वात्सयायन' जी। एक जगह जरूर पुनर्विचार करने की आश्यकता मुझे जान पड़ती है।
"मंद सी मुस्कान उसके दो अधर पर जब खिली"....यहाँ 'दो अधर' की जगह 'अधरों' होना चाहिए।
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