बच्चों को शुरू से अध्यात्म, आराधना, वंदना आदि का व्यावहारिक अभ्यास 'लर्न विद़ फ़न, लर्न विद़ कर्म' या 'देखो, करो और सीखो' पद्धति से कराया जा सकता है। प्रवचन, भाषण, गायन, पुस्तकीय पठन-पाठन मात्र से नहीं। इसके लिए तो हर सरकारी दस्तावेज़ जारी या उपलब्ध कराने, विवाह, गर्भधारणा और उपाधियां देने से पहले, नागरिकता, आधार कार्ड, राशनकार्ड, परिचय पत्र, बैंक अकाउंट, सिमकार्ड, मताधिकार, ड्राइविंग लाइसेंस आदि उपलब्ध कराने से पहले भारत में जन्मे हर भारतवासी को भारत की सर्वधर्म समभाव वाली, देशसेवा, राष्ट्र समर्पण वाली, राष्ट्रीय उत्थान मूलक "आचार-संहिता" का प्रशिक्षण एवं अनुपालन कार्यशाला परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रमाण पत्र हासिल करने की अनिवार्यता अत्यावश्यक है।
अठारह वर्ष आयु हो जाने पर हर भारतवासी को निर्धारित आचार-संहिता में प्रशिक्षित हो जाने के बाद ही उसे विद्यालयीन शिक्षा की एक उपाधि दी जाये, उसी के आधार पर उसको आधार कार्ड, बैंक अकाउंट, मूल निवासी प्रमाण पत्र आदि उपलब्ध कराकर रोज़गार मूलक पाठ्यक्रमों या महाविद्यालयीन शिक्षा में प्रवेश दिया जाये। किसी भी चरण में आचार संहिता का उल्लंघन करने पर उसके सभी दस्तावेज़ व उपाधि, नौकरी या व्यवसाय तब तक सस्पैंड कर दिया जाये, जब तक कि वह पुनः आचार संहिता प्रशिक्षण की द्वितीय उपाधि प्रमाण पत्र हासिल न कर ले।
ऐसे तैयार भारतीय नागरिक ही अपनी संतान को बचपन से ही आध्यात्म, आराधना, वंदना, स्वच्छता, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम, विश्व-स्तरीय भाईचारा, मानवता, मानवाधिकार, मानव कर्तव्य, देशप्रेम, देशहित, राष्ट्र समर्पण, रचनात्मक सक्रियता, पारिवारिक-सामाजिक-राष्ट्रीय दायित्व आदि सिखा सकेंगे।
जब माँ-बाप, परिवारजन, रिश्तेदार, शिक्षकगण, कर्मचारी-अधिकारीगण, पार्षद-विधायक-सांसद-मंत्री-राष्ट्र सेवकगण का ही आचरण व व्यवहार, प्रवृत्तियां, दिनचर्या, भाषा प्रयोग आदि प्रदूषित या दोषपूर्ण या हास्यास्पद होगा, तो वे अपनी संतानों, अधीनस्थों आदि को क्या सिखा सकेंगे। मीडिया को भी ऐसी निर्धारित राष्ट्रीय आचार-संहिता (एतद द्वारा अभिकल्पित व यहां प्रस्तावित) का अनुपालन करना होगा।
यह आचार-संहिता हमारे संविधान व क़ानून के साथ राष्ट्र हितार्थ क़दमताल करती हुई सर्वधर्म समभाव के साथ विशेषज्ञों द्वारा तैयार की जाये। वरना केवल मीडियाई भाषण-प्रवचन, सीरियल-फ़िल्मों और धार्मिक-आध्यात्मिक-नैतिक शिक्षा की पुस्तकों व ग्रंथों के पठन-पाठन से न तो 70-72 सालों में हम कुछ कर.पाये और न ही आगे कर पायेंगे। हां, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण और डिजिटलीकरण की विकास सुनामी में हमने बच्चों, युवाओं, महिलाओं को प्रदूषित व्यक्तित्व और चरित्र वाली मशीनों में बदल कर ही मझधार में संघर्ष करने छोड़ दिया है, छोड़ते जा रहे हैं। परिवार से, धर्मों से, देश की संस्कृति और संस्कार से पलायन तेज़ी से बढ़ रहा है।
अध्यापन कार्यकाल में शिक्षकों ने विद्यालयों में देखा है कि प्रार्थना सभा भली-भांति सम्पन्न करने के बाद अपनी कक्षाओं में पहुँचते ही छात्र ज़ोर से बातचीत या शोरगुल करने लगते हैं या कुछ अन्य गतिविधियाँ। उन्हें समझाया जाता है कि कक्षाओं में पहुँचते ही अपने पहले पीरियड की सामग्री बस्तों से निकाल कर सबसे पहले छात्र शिक्षक की उपस्थिति में या उनके आने तक कुछ मिनट ध्यान करें, फिर संबंधित विषय का उस दिन का गृहकार्य या पाठ या अध्ययन शांति से करें। कई बार छात्रों को समझाया गया और ऐसा अभ्यास भी करवाया गया, लेकिन यह सब निरर्थक ही रहा कई कारणों से।
इसी प्रकार बच्चों के बस्तों पर बच्चों के पैर लगने पर शिक्षकों ने बस्ते सही ढंग से रखने और शिक्षा सामग्री का आदर करने के तरीक़े सिखाने की कोशिश की, लेकिन अंततः वह प्रयास भी निरर्थक रहा। केवल सुसंस्कृत दो-चार विद्यार्थियों ने ही सीखा। जिसका श्रेय उनके परिवारजन से मिले संस्कारों को ही जाता है। आशय यह कि शिक्षकों से पहले मात-पिता व परिवारजन की भूमिका अहम है। अतः पहले उन्हें प्रशिक्षित किया जाना ज़रूरी है, फ़िर शिक्षकगण को। यहां भी उसी आचार-संहिता के प्रशिक्षण व अनुपालन की बात कही जा सकती है।
विगत दस--बीस सालों से उच्च वर्गीय परिवारों के अलावा मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चों, परिवारजन व शिक्षकगण के वार्तालाप, भाषा-शैली, शब्द चयन, अपशब्द प्रचलन देख कर स्पष्ट हो जाता है कि पारंपरिक रीति-रिवाज़ों, धार्मिक-आध्यात्मिक-नैतिक पुस्तकों/ग्रंथों के पठन-पाठन-गायन, कंठस्थीकरण आदि करते-करवाते रहने का संबंध केवल क्षणिक औपचारिकता, फ़न या इम्प्रेशन से रह गया है, न कि व्यक्तित्व/चरित्र/संस्कार निर्माण से। धार्मिक-आध्यात्मिक टीवी धारावाहिकों का असर बच्चों व लोगों पर होता, तो वह स्पष्ट आचरण व व्यवहार में दिखाई देता। सही हिंदी बोलने वाले की, धार्मिक नैतिक बातें करने वाले की आज भी हँसी ही उड़ाई जाती है; उसके साथ बच्चे व साथी बोर हो जाते हैंं। कारण मीडियाई प्रदूषित ख़ुराक और इंटरनेट से प्रदूषित सामग्री चयन ही है। अतः उपरोक्त अभिकल्पित व प्रस्तावित आचार-संहिता का ही आज औचित्य है विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित करने, अनुपालन करने/करवाने और समुचित अनिवार्य प्रशिक्षण दिलवाने बावत।
(मौलिक व अप्रकाशित)
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
(19-05-2019)
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