गंगा - लघुकथा -
शंकर सेना में हवलदार था। उसकी पोस्टिंग सिलीगुड़ी में थी। आज उसका अवकाश था तो अपनी साईकिल उठा कर शहर घूमने निकल गया। घूमते घूमते एक घर के दरवाजे पर उसकी निगाहें अटक गयीं। एक खूबसूरत युवती खड़ी थी। उसकी शक्ल हूबहू उसकी बचपन की दोस्त गंगा से मिल रही थी।
गंगा लगभग आठ दस साल की थी कि तभी कोई ठग उसे बहला फ़ुसला कर उड़ा ले गया था। यह घटना दिल्ली में हुई थी। परिवार ने बहुत खोज बीन की लेकिन गंगा का कुछ पता नहीं लगा। पुलिस में भी रिपोर्ट दी गयी थी।
शंकर कुछ देर असमंजस में खड़ा सोचता रहा। जब दिल नहीं माना तो उसने साईकिल उस घर के दरवाजे के आगे रोक ली।
"तुम गंगा हो ना?"
"कौन गंगा?" लड़की की आवाज में घबराहट और कंपन थी|
लड़की के हिचकिचाने से शंकर को कुछ शक़ हुआ।
"झूठ मत बोलो, तुम गंगा ही हो ना?"
"मतलब की बात करो। मैं एक धंधा करने वाली लड़की हूँ। तुम्हें जो करना है, कर लो| नाम कुछ भी हो क्या फ़र्क़ पड़ता है?"
अब शंकर को पूरा यक़ीन होने लगा था कि यह गंगा ही है।
"गंगा, मैं तुम्हारा बचपन का दोस्त शंकर हूँ। मुझसे कुछ मत छिपाओ। मैं तुम्हारी मदद करूंगा।"
"भूल जाओ उसे।वह गंगा कब की मर गयी।"
"कैसी बात करती हो? मैं तो तुम्हारे लिये ही जिंदा हूँ। कहाँ कहाँ नहीं खोजा। तुम्हारे इंतज़ार में अभी तक शादी भी नहीं की।"
"शंकर, तुम्हारी गंगा मैली हो गयी।भूल जाओ उसे| जाने कितनी बार बिक चुकी है?"
"पगली, गंगा भी कभी मैली हो सकती है।"
शंकर ने गंगा का हाथ पकड़ कर अपनी साईकिल पर बैठा लिया।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।
आदाब। महिला उत्पीड़न पर समाधान सहित प्रेरक और प्रोत्साहक. बेहतरीन रचना।.हार्दिक बधाई जनाब तेजवीर सिंह साहिब।
हार्दिक आभार आदरणीय अनामिका सिंह "अना" जी।
वाह ! संदेशप्रद कथानक ।
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