ज़ीस्त को मुझसे है गिला देखो
जी रहा हूँ मैं हौसला देखो
साथ रहते हैं एक छत के तले
दरम्याँ फिर भी फासला देखो
तुम जिधर जा रहे हो बेखुद से
वहीं आयेगा जलजला देखो
सँभाल ही लूँगा मरासिम सारे
तुम कोई और मुआमला देखो
प्यार पे उसको दो नही ख़ुत्बा
दुध का वो भी है जला देखो
उसने मकबूलियत भी देखी है
शम्स उसका है अब ढला देखो
हवा है गुम मगर उमीद तो रख
एक पत्ता है फिर हिला देखो
चला था मैं अकेला ही मगर
साथ अब मेरे काफिला देखो
जो भी आया उसको है जाना
‘दीप’ ज़ारी ये सिलसिला देखो
ख़ुत्बा=भाषण
मरासिम=रिश्ते
दीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अ प्रकाशित
Comment
अजय तिवारी जी प्रणाम, आप का हुक्म सर आंखों पर्।
जी समर ही लगभग दो दशक पहले की रचना है, जियादा कुछ पता नही था {मेरा मानना है अभी भी बहुत कुछ सीखना बाकी है} प्रयास करता रहूँगा। अगर आप उचित समझे तो मुझे अपना मोबाइल नम्बर दे दें, ताकि आपका मार्गदर्शन लिया जा सके। मेरा मोबाईल नम्बर-9867678909 (Whats up) है।
जनाब प्रदीप जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब अजय तिवारी साहिब की बातों का संज्ञान लें,कुछ बातें मैं आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
'मैं जी रहा हूँ हौसला देखो'
ये मिसरा बह्र में नहीं,यूँ कर सकते हैं:-
'जी रहा हूँ मैं हौसला देखो'
'हवा है गुम मगर उम्मीद तो रख
एक पत्ता है फिर हिला देखो'
इस शैर में शुतरगुरबा ऐब है,और ऊला में 'उम्मीद' की जगह "उमीद" शब्द उचित होगा,वज़्न के लिहाज़ से ।
'आए कितने कोई ठहरा है कहाँ'
इस मिसरे की बह्र चेक करें ।
आदरणीय प्रदीप जी,
सम्भाँल ही लूँगा मरासिम सारे > सही शब्द 'सँभाल'(121) है. मिसरा फिर से देखिएगा.
हवा है गुम मगर उम्मीद तो रख > बह्र में नहीं है. 'है हवा गुम मगर उमीद तो रख' किया जा सकता है.
अच्छे शेर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
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