विकसित से
हर पल जल
विकासशील
बेबस बेकल
होड़ प्रतिपल
छलके छल
भ्रष्टाचार-बल!
धरती घायल
सूखते स्रोत
उद्योग-दलदल!
उथल-पुथल
बिकता जल
दर-दर सबल
थकता निर्बल
धन से दंगल
नारे प्रबल
हर घर जल
सुनकर ढल
नेत्र सजल!
बड़ी मुश्किल
आग प्रबल
दूर दमकल
सीढ़ी दुर्बल
ज़िंदा ही जल!
जल में ही बल
जल है, तो कल
कर किलकिल
या फ़िर सँभल!
धाराओं का जल
बिन कलकल
नदियाँ बेकल
प्रदूषण-प्रतिफल!
प्रकृति ही संबल
बन कर निश्छल
चक्र पर चल
कर्मठ अटल
मानवता-बल!
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदाब। रचना पर समय देकर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहिब।
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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