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चक्र पर चल (छंदमुक्त काव्य)

विकसित से
हर पल जल
विकासशील
बेबस बेकल
होड़ प्रतिपल
छलके छल
भ्रष्टाचार-बल!
धरती घायल
सूखते स्रोत
उद्योग-दलदल!
उथल-पुथल
बिकता जल
दर-दर सबल
थकता निर्बल
धन से दंगल
नारे प्रबल
हर घर जल
सुनकर ढल
नेत्र सजल!
बड़ी मुश्किल
आग प्रबल
दूर दमकल
सीढ़ी दुर्बल
ज़िंदा ही जल!
जल में ही बल
जल है, तो कल
कर किलकिल
या फ़िर सँभल!
धाराओं का जल
बिन कलकल
नदियाँ बेकल
प्रदूषण-प्रतिफल!
प्रकृति ही संबल
बन कर निश्छल
चक्र पर चल
कर्मठ अटल
मानवता-बल!


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 13, 2019 at 9:20pm

आदाब। रचना पर समय देकर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहिब।

Comment by Samar kabeer on July 10, 2019 at 8:26pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी कविता हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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