सजन रे झूठ मत बोलो ...
रहने दो
मेरे घावों पर
मरहम लगाने की कोशिश मत करो
मैं जानती हूँ
तुम्हारे मन में
मैं नहीं
सिर्फ मेरा तन है
जानती हूँ
रैन होते ही तुम आओगे
कुछ बहलाओगे कुछ फुसलाओगे
धीरे धीरे मैं बहल जाऊँगी
मोम सी पिघल जाऊँगी
न न करते
मर्यादाओं की दहलीज़ लाँघ जाऊँगी
भोर के साथ नशा उतर जाएगा
हर वादा बहक जाएगा
हर बार की तरह
मेरे मन में
फिर आने की कसक छोड़ जाओगे
हर इंतज़ार
बस इंतज़ार रह जाएगा
कब तक
बताओ न कब तक
तुम मेरी भावनाओं से खेलोगे
हर रात मेरी प्रीत की बोली लगाओगे
वासना जाल बिछाओगे
कभी तो मेरे स्वीकार को
प्यार के तराज़ू में तोलो
मैं कयामत तक
तुम्हारा इंतज़ार कर लूँगी
मानो मेरी बात
अबकी बार
कुछ भी बोलो
मगर
सजन रे झूठ मत बोलो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सुशील सरना जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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