मिटाने फासले तुझको अगर हैं  गुफ़्तगू कर ले 
 सियेगा ज़ख्म कोई सोच मत ख़ुद ही रफ़ू कर ले 
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 मुक़ाबिल ख़ौफ़-ए-ग़म होजा अगर पीछा छुड़ाना है
 ग़मों से भाग मत इक बार तू रुख़ रूबरू कर ले 
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 नहीं महफ़ूज़ गुलशन में कली कच्ची अभी तक भी 
 बचा है कौन अब उसकी जो फ़िक्र-ए-आबरू कर ले 
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 कोई तो दर्द है दिल में लबों पर आ नहीं पाता 
 वगरना कौन है जो चश्म दोनों आबजू कर ले 
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 नहीं तूने ख़ता कोई अगर की ख़ौफ़ किसका है 
 नहीं मुमकिन कोई मर्ज़ी से अपना ज़र्द-रू कर ले 
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छुपाएगा अगर ग़म को बढ़ेगा दर्द ज़िद मत कर 
 यही बेहतर किसी के साथ तू ग़म को नुमू कर ले 
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 हमेशा सुनता आया है खुदा मौज़ूद है अंदर 
 अकेले बैठकर ख़ुद की कभी तू जुस्तजू कर ले 
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 अगर पाकीज़गी दिल में नहीं तेरे 'तुरंत 'अब तक 
 खुदा कैसे मिलेगा लाख चाहे तू वुजू कर ले 
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 गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
 २६ /०७/२०१९
 (मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
कमियों पर नज़र डालकर दुरुस्त करवाने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहेब ,सादर नमन |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'मिटाने फासले तुझको अगर है गुफ़्तगू कर ले'
इस मिसरे में 'फ़ासले' शब्द बहुवचन है,इस कारण 'है' को "हैं" कर लें ।
'अगर इंसान कोई ठीक से पहले शुरू कर ले'
इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है "शुरू'अ''और इसका वज़्न 121 होता है,देखियेगा ।
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