किसी के प्यार की ख़ातिर हमारा दिल तरसे 
 घटा-ए-इश्क़ तो छाई न जाने कब बरसे 
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 न तीर दिल पे चला यार ज़ख़्म गर देना 
 कि इस पे ज़ख़्म हुआ करते जब गुल-ए-तर से 
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 क़दम बढ़ाना भी मुश्किल है जानिब-ए-मंज़िल 
 मिला फ़रेब हमें इस क़दर है रहबर से 
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 करेगा चूर अगर ज़ुल्म की हदें टूटें 
 उमीद और है क्या आईने को पत्थर से 
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 ख़ुदाया देख ज़रा भी किसी को, दर्द नहीं 
 किसी के दर्द बड़े हो गए समंदर से 
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 लकीरें हाथों की जिसने बनाई मेहनत से 
 उसे हुआ है भला कब गिला मुक़द्दर से 
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 उगलते बनते न ग़म और निगलते भी न बनें 
 हुए है हाल इधर सांप और छुछुंदर से 
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 बताएगा वो भला क्या कि चीज़ क्या है शराब 
 पड़ा न काम जिसे साक़ी और साग़र से 
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 लगाया आपने इलज़ाम-ए-क़त्ल-ए-उल्फ़त क्यों 
 'तुरंत ' जब कि नहीं निकला आज तक घर से 
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 गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी | 
 १८/०८/२०१९
 (मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | शाद-ओ-आबाद-ओ-सेहतयाब रहें |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल कही आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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