बीच समंदर कश्ती छोड़े धोका गर मल्लाह करे
मंज़िल कैसे ढूंढोगे जब रहबर ही गुमराह करे
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आज हुआ है इंसानों में प्यार मुहब्बत क्यों ग़ायब
घर घर की चर्चा है अपने अपनों से ही डाह करे
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पानी मांग नहीं पाता है साँपों का काटा जैसे
ऐसा काम भयानक अक़्सर मज़्लूमों की आह करे
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आज अक़ीदत और इबादत का जज़्बा गुम सा देखा
दिल में जब विश्वास नहीं तो क्या अपना अल्लाह करे
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महँगाई की मार वतन में आज हुई इतनी भारी
इस हालत में क्या बेचारी छोटी सी तनख़्वाह करे
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दिल तोड़ोगे यार किसी का चैन कहाँ फिर पाओगे
कोई बन्दा भूले से ये मत संगीन गुनाह करे
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अपनी अपनी फ़िक्रों में मश्ग़ूल यहाँ सब रहते हैं
कौन किसी की इस दुनिया में कैसे फिर परवाह करे
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जबरन घुस आती हैं घर में वो अक़्सर मेहमाँ बनकर
वरना कौन मुसीबत से ख़ुद जाकर यार निकाह करे
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एटम बम के ख़तरे से अब कौन रहा महफ़ूज़ 'तुरंत '
ख़ाक हिफ़ाज़त जनता की अब जूना शह्र-पनाह करे
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया समर सर जी ,आपकी नज़रसानी के लिए | है भी बड़ी छोटी होती है मुझे पता ही नहीं इसलिए ये गड़बड़ हुई है | सादर नमन |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'घर घर की चर्चा है अपने अपनों से ही डाह करे'
इस मिसरे में रदीफ़ 'करे' की बजाय "करें" हो रही है,ग़ौर करें ।
'वरना कौन मुसीबत से ख़ुद जाकर यार निकाह करे '
इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है,आपके क़वाफ़ी 'ह' ख़फ़ी' के हैं और 'निकाह' शब्द में बड़ी "ह" होती है, देखियेगा ।
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