ललालाला ललालाला ललालाला ललालाला
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न मंदिर में मिले ईश्वर, गुफाओं में न जाने से .
न भूखे पेट रहने से, न गंगा ही नहाने से .
उसे पाना अगर सच में, हृदय में झाँक कर देखो ,
मिले रैदास, मीरा - प्रेम की बगिया खिलाने से .
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कभी है धूप जीवन में, कभी मिलते यहाँ साए.
सहारे को नहीं ढूँढ़ो, मिले या फिर न मिल पाए.
गिराती शाख कैसे फल, धरा पर सीख लो उससे,
हवा का क्या भरोसा है, कभी आए नहीं आए.
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कहें वे बुद्धि उनकी तीव्र, लेकिन पाक कितनी है .
सही है दृष्टि दूरी-पास की, पर साफ़ कितनी है .
प्रभावित कर रहे तुम, गीत से, संगीत लहरी से,
मगर यह तो बताओ, साँच की जो थाप कितनी है .
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मौलिक और अप्रकाशित
- शून्य आकांक्षी
Comment
सर Samar kabeer जी,
आपका आशीर्वाद पाकर ये मुक्तक धन्य हुए | आपका कथन सही है कि अंतिम मुक्तक में तुकांतता का अभाव है | वहाँ अर्द्ध तुकांत है | आगे से आपके आदेश का पालन किया जाएगा | आपकी सारगर्भित टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार सर |
जनाब शून्य आकांक्षी जी आदाब,अच्छे मुक्तक लिखे आपने,बधाई स्वीकार करें ।
अंतिम मुक्तक में तुकांतता यानी क़वाफ़ी नदारद हैं,ग़ौर करें ।
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