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￰मिले थे हम यूँ किनारे समंदर था पहाड़ थे ,
जीवन शैली के कुछ नए अरमान थे ,
कुछ नए पुराने से आयाम थे,
कुछ तड़प थी कुछ झड़प थी ,
कुछ अन सुलझे से अहसास थे ,
सब कुछ आसान था जब तुम साथ थी !
फिर क्या हुआ प्रिये जो तुमने रूठने की सोची ,
यहीं होती तो मना लाया होता,
तुमतो रूठ कर दूसरी ही दुनिया को निकली !
अब सच बताऊँ प्रिये जीवन का सार चला गया ,
समंदर, पहाड़ तो हैं पर वो एहसास चला गया !
तुमसे मिलन की आस तो अब दूसरे दुंनिया पर टिकी है ........
बस तुम्हारी लगाई बगिया को सहेज रहा हूँ ,
इन पौधों को बड़ा होते देख रहा हूँ !
मुझे तो यहीं रहना होगा प्रिये :
इन पौधों को वृक्ष बनाऊंगा
और तब तुमसे आकर मिलूंगा ,
मुझे यकीन है तुम मेरा इंतज़ार करोगी ;
और तब हमारे मिलन का एक नया आगाज़ होगा........
 
मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 16, 2019 at 3:30pm

कृपया इसे यूँ कर लें

" बस तुम्हारी लगाई बगिया को सहेज रहा हूँ"

बधाई,

Comment by Naveen Mani Tripathi on August 15, 2019 at 8:10pm

आ0 प्रतिभा पांडेय जी बहुत सुंदर भावात्मक आवेग । हार्दिक बधाई आपको ।

कृपया ध्यान दे...

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