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अजीब अवस्था है

कोई खुरदरी विवशता है

और है अद्भुत  चित्ताकर्षण ....

पलकों के आसपास 

गहन दूरता का आवरण

कि  जैसे  हो  फैल  रहा

मूर्छा का मौन वातावरण

अपरिचित भीड़ में खो गईं 

कितनी  परिचित  संज्ञाएँ

सरोवर-सदृश  संवेदनाएँ

फिर  भी  न  जाने  कैसे

दरिद्र हुई धड़कन में भी आदतन

कोई वादा निभाने के बहाने ही शायद

डरी  हुई  बाहें  फैलाए

व्याकुलतर  गति  से  छू  लेती  हैं

आज भी आत्मीयता से

संबंध-सूत्र  में  रुह  को  रुह  से

स्नेहमयी  सम्पन्न  मुद्राएँ

विषादाकुल  पदचाप

आत्मा  के  बहुत  पास 

 है  किसीे  की  निर्दोश  

अधटूटी आस्था की पुकार

            -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on September 12, 2019 at 6:32am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी

Comment by vijay nikore on September 12, 2019 at 6:32am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र सुशील जी।

Comment by Samar kabeer on September 7, 2019 at 2:44pm

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत सुंदर,प्रभावशाली और गम्भीर रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sushil Sarna on September 5, 2019 at 4:38pm

विषादाकुल पदचाप

आत्मा के बहुत पास

है किसीे की निर्दोश

अधटूटी आस्था की पुकार

वाह आदरणीय विजय निकोर जी आपकी रचनाएं ऐसे प्रतीत होती हैं मानों सागर गर्भ को चीयर कर वेदना साहिलों पर आ जाए। इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।

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