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जिंदगी ने सब दिया पर चैन का बिस्तर नहीं
जिस जगह सर को न पटका ऐसा कोई दर नहीं
हार कर मजबूर होकर आज ये कहना पड़ा
इश्क इक ऐसा परिंदा है कि जिसका घर नहीं
मुझको मंजिल से जुदा कर तूने साबित कर दिया
मैं तेरे रस्ते पे हूं पर तू मेरा रहबर नहीं
इस जहां में बस वही आराम से जीता मिला
जिसको अपनी ही गरज है आसमां का डर नहीं
आंखों से ख्वाबों के संग तेरा भरोसा भी गया
मुझको जीना तो पड़ेगा पर तेरा होकर नहीं
मेरे दिल की खैरियत आकर बता दे चारागर
याद उनकी अब भी आती है मगर अक्सर नहीं
अपने दिल की बात कहने का नतीजा ये मिला
लोग ये कहने लगे हैं आदमी बेहतर नहीं
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर ' जी
हार्दिक आभार आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी
बहुमूल्य इस्लाह के लिए हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब
आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है
आशीर्वाद बनाएं रखिये
सादर
बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है भाई मनोज जी..बधाई
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'इश्क इक ऐसा परिंदा है कि जिसका घर नहीं'
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'इश्क़ है ऐसा परिन्दा जिसका कोई घर नहीं'
आ. भाई मनोज जी , सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
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