भीतर तुम्हारे
है एक बहुत बड़ा कमरा
मानो वहीं है संसार तुम्हारा
वेदना, अतृप्ति, विरह और विषमता
काले-काले मेघ और दुखद ठहराव
इन सब से भरा यह कमरा बुलाता है तुमको
जानती हूँ यह भी कि इस कमरे से तुम्हारा
रहा है बहुत पुराना गहरा गोपनीय रिश्ता
इस आभासी दुनिया के मिथ्यात्व से दूर होने को
तुम कभी भी किसी भी पल धीरे हलके-हलके
अपराध-भाव-ग्रस्त मानों फांसी के फंदे पर झूलते
बिना कुछ बोले उस कमरे में जब भी जाते हो
बंद कमरे में बंदी, तुम उस कमरे के हो जाते हो
काश तुम जानो कि तुम्हारी अनुपस्थिति में
विवशता के कारण तुम्हारे मौन की अनुगूँज
चारों ओर दीवारों से टकरा-टकरा कर
मुझपर अचानक भयानक कि~त~नी
अदृश्य चोट करती है
इस काल्पनिक कमरे की दीवारें
तुम्हारे चेहरे का रंग देख
रंग बदलती हैं
कभी मातम की उदासी-सी काली
कभी नए मोतिए की कलियों-सी सफ़ेद
और कभी तुम्हारी आँखों की नमी से
बारिश-सी भीग भी जाती हैं
यहाँ तुम्हारे इस कमरे के बाहर
मैं "अपनी" अँधेरी कोठरी में तनहा
तुमको कितना भी पुकारूँ
मेरे शब्द खोखले
तुमको सुनाई नहीं देते ...
क्या सोचा कभी कि तुम्हारे बिना मेरा एकान्त
कितना औ~र अन्धकारमय हो जाता है ?
इतना कि इस भारी ठोस अन्धकार को मैं
ठेल नहीं सकती, पिघला भी नहीं पाती
बस, तुम्हारे इस कमरे के बाहर बैठी
तकती रहती हूँ
कि तुम घूमघुमाकर
इस रहस्यमय कमरे से बाहर
आओगे .... कब आओगे
इस बंद कमरे से बाहर आते ही तुम
देखते हो मेरी झोल खाई हुई आँखों में
कहते हो केवल ... "कैसी हो, "प्यार" "
और मैं मानों सदियों से प्रतीक्षारत
कुछ भी कह नहीं पाती, भीतर-बाहर खिल जाती हूँ बस
अकुला रहे अनकहे मेरे सारे के सारे शब्द
कोई फूल जैसे पहली बारिश से झर झर जाते हैं
जानती हूँ कि उस कमरे में
तुम हो
तुम्हारा संसार है
मैं नहीं हूँ कहीं
पर तुम्हारे शब्द, "कैसी हो, "प्यार" "
चाहे मिथ्या ही हों
चिपके रहते हैं मुझसे
अपने खोए हुए को खोजती परखती सिकुड़ती
इस व्यथित अचेत असहनीय अवस्था में मानों
किराय का अस्तित्व लिए तालाब में बुलबुले-सी
मैं हल खोजती सहसा घबरा जाती हूँ
और तुम पूछते हो मुझसे
मेरी घबराहट का कारण ?
.... तुम्हारा यह कमरा
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- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित}
Comment
नमस्कार, मित्र बृजेश जी। इतने समय उपरान्त आपका मेरी रचना पर आना सुखद एवं आत्मीय लगा।
मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार। आशा है आप और आपका परिवार कुशल होंगे।
आदरणीय विजय जी..वास्तव में शब्द नहीं हैं मेरे पास..आपकी कवितायेँ शुरू से अंत तक बांधे रखती हैं और अंत में भी एक अतृप्ता छोड़ जातीं हैं...और मेरे हिसाब से यही रचना की उत्कृष्टता का सर्वोच्च पैमाना है।बधाई आपको इस भावप्रण कविता के लिए।
मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी।
मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र सुशील जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
अपने खोए हुए को खोजती परखती सिकुड़ती
इस व्यथित अचेत असहनीय अवस्था में मानों
किराय का अस्तित्व लिए तालाब में बुलबुले-सी
मैं हल खोजती सहसा घबरा जाती हूँ
और तुम पूछते हो मुझसे
मेरी घबराहट का कारण ?
.... तुम्हारा यह कमरा
वाह आदरणीय निकोर साहिब वाह आपके सृजन में बादलों की घुटन,,प्रतीक्षा की तपन, अन्तस् का मर्दन बहुत ही सुंदर चित्रित हुआ है। कक्ष के एकांत में प्रतीक्षा का क्रंदन साफ़ सुनाई देता है। सूखी नदी के नीचे रुका दर्दीला बहाव बहुत कुछ कहता है। बहरहाल इस उत्कृष्ट भावपूर्ण सृजन के लिए हार्दिक बधाई।
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