ये ज़ीस्त रोज़ सूरत-ए-गुलरेज़ हो जनाब
राह-ए-गुनाह से सदा परहेज़ हो जनाब
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मंज़िल कहाँ से आपके चूमें क़दम कभी
कोशिश ही जब तलक न जुनूँ-ख़ेज़ हो जनाब
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क्या लुत्फ़ ज़िंदगी का लिया आपने अगर
मक़सद ही ज़िंदगी का न तबरेज़ हो जनाब
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मुमकिन कहाँ कि ज़िंदगी की पीठ पर कभी
लगती किसी के ग़म की न महमेज़ हो जनाब
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उस जा पे फ़स्ल बोने की ज़हमत न कीजिये
जिस जा अगर ज़मीं ही न ज़रखेज़ हो जनाब
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इस बात को न भूलें मुसीबत के दिनों में
पैमाना दिल का सब्र से लबरेज़ हो जनाब
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रस्ते सदाकतों के चुने जब हैं आपने
कैसे न फिर ज़बीं पे कोई तेज़ हो जनाब
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खूँरेज़ होना यूँ तो है अच्छा नहीं मगर
हसरत वतन के वास्ते खूँरेज़ हो जनाब
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फ़ितरत नदी की प्यास बुझाना रहे 'तुरंत '
कुछ दिन भले नदी भी बला-खेज़ हो जनाब
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत 'बीकानेरी
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शब्दार्थ -सूरत-ए-गुलरेज़=गुलाब के फव्वारे की तरह
जुनूँ-ख़ेज़=जूनून बढ़ानेवाली ,तबरेज़ =चुनौतीपूर्ण ,
महमेज़=ऐड़ /घुड़सवार के जूते में लगी कील , जा =जगह ,
ज़रखेज़=उत्पादक ,लबरेज़=लबालब भरा ,
खूँरेज़=खून बहानेवाला/वाली
बला-खेज़ =अनर्थकारी /नुकसानदेह
(मौलिक एवं प्रकाशित )
Comment
शुक्रिया ब्रज साहेब हौसला आफजाई के लिए
वाह आदरणीय क्या ही शानदार ग़ज़ल कही है..
उस जा पे फ़स्ल बोने की ज़हमत न कीजिये
जिस जा अगर ज़मीं ही न ज़रखेज़ हो जनाब...कमाल है
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