दीपावली के चंद रोज़ पहले से ही त्योहार सा माहौल था उस कच्चे से घर में। सब अपने पालनहार बनाने में जुटे हुए थे; कोई मिट्टी रौंद रहा था, कोई पहिया चला-चला कर उसके केंद्र पर मिट्टी के लौंदों को त्योहार मुताबिक़ सुंदर आकार दे रहा था। वह उन्हें धूप में कतारबद्ध जमाती जा रही थी। लेकिन अपने-अपने काम में तल्लीन और सपनों में खोये अपनों को देख कर उसे अजीब सा सुकून मिल रहा था हर मर्तबा माफ़िक़। एक तरफ़ उसकी सास; दूसरी तरफ़ समय के पहिये संग कुम्हार का पैतृक पहिया चलाता उसका पति दीपक और उसके कंधों पर झूलता हुआ, पहिये पर कलाबाज़ी दिखाती मिट्टी और पिता की हथेलियों-उंगलियों को निहारता हुआ चंचल दीपू।
धूप को नज़रअंदाज़ करती हुई थोड़ी दूर खड़ी वह अपने घर के उजालों को निहार रही थी। घूमते पहिए को देखती हुई वह अतीत में खो गई।
"एक वक़्त था, जब मुझे लोग कोसते थे! कोई बांझ, तो कोई कुछ और कह दिया करता था। कभी-कभी तो मेरे मेहनतकश पति को निकम्मा-नामर्द तक कह देते थे लोग!" यह सोचते हुए वह अपनी प्रेरणा, परिश्रमी 'सास' जी की ओर देखने लगी। देवरों के घर बेटियाँ ही पैदा हुईं। सबको दीपक से ही एक चिराग़ की उम्मीद थी। सास ने ही हमेशा उसके और उसके पति का हौसला बढ़ाया; कुम्हार के ख़ानदानी पेशे को जारी रखने की समझाइश दी।
"दादी कह रही थीं कि भगवान ने मुझे भी इन दीयों की तरह बनाया है, अपने घर में उजाला लाने के लिए!" अचानक दीपू के मुख से निकले इन शब्दों ने वहाँ की ख़ामोशी में ख़लल पैदा कर दिया। उसकी दादी मुस्कराने लगी; माँ ने दूर से ही सिर हिलाकर उसकी बात का समर्थन किया। दीपक के हाथ पहिए पर पहले से तेज़ चलने लगे। दीपू उसके कंधों पर झूलने की असफल कोशिश कर रहा था।
"इस बार तो पूरे दीये बिक जायेंगे न बापू!" दीपू के इन शब्दों से फ़िर सवालिया ख़ामोशी छा गई।
"कुछ तो बिकेंगे; हमें पालेंगे... और हमारी तरह तुम भी इनकी विरासत संभालोगे बेटा!" दादी ने उसके नज़दीक़ आकर सबकी ओर देख कर कहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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आद0 शेख सहजाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये
मेरे रचना पटल पर उपस्थित होकर मुझे यूं प्रोत्साहित करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहिब। सभी व्यूअर्स को हार्दिक धन्यवाद।
जनाब शौख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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