चिन्तन-प्रश्न
आस्था की अनवस्थ रग को सहलाते
सचाई के अब भयावने-हुए मुख पर
उलझनों के ताल के उस पार उतर कर
अचानक यह कैसा उठा प्रश्नों का चक्रवात
चिंता की हवाओं का मंडराता विस्तार
एकाएक
यह क्या हुआ ?
कैसा खतरनाक है यह
सतही ज़िन्दगी का सतही स्तर
बाहरी चीख-चिल्लाहट
सुनाई नहीं देता है आत्मा का स्वर
ऐसे में असहज है कितना
द्वंद्व-स्थिति में संकल्प-शक्ति से
किसी भी सत्य को अनुभूत करना
धोखों से भरे मस्तक-कुण्ड में
निस्वार्थ, बिलकुल निस्वार्थ
सचेत रह कर
किसी दरिद्र की शून्य-आँखों में देख
स्वयं भूखे रह कर
उसकी घनीभूत भूख को महसूस करना
माया के मोहजाल के झुठलावे के शिखर पर
अविवेक के अस्वीकृत शिकंजे में
पल-पल मुखमंडल पर स्थापित
न छिप सकती रेखाओं को नकारते
जो कोई पूछे कि "कैसे हो"
तो क्या सहज नहीं कह देते हैं हम
एक छोटा-सा लगता-सा पर बड़ा है जो
असुविचारित झूठ ...
"ठीक हूँ मैं"
ज़माने में ज़माने के हो जाने के
असफ़ल प्रयास में ऐसे
मामूली सचाइयों की उत्पीड़क तंग सीढ़ियों से
उतरते-लड़खड़ाते-गिरते
समय-असमय हम आदतन चुपचाप
ईमान की गरदन नहीं मरोड़ देते क्या ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र सुरेन्द्र नाथ सिंह जी
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीर जी
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। इस बेहतरीन प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्दा प्रभावशाली रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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