स्वप्न-सृष्टि
बुझते दिन का सहारा बनी
गहन गंभीर अभागी शाम
मन में अब अपने ही पुराने घाव की
मौन वेदना की गुथियाँ समेटती
बूँद-बूँद गलती
पहले स्वयं सरकती-सी रात की ओर
अंधेरा होते ही फिर घसीट लेती है रात
बेरहमी से अपनी काली कोठरी में उसको
उस काली कोठरी में है पसर रही
असीम निस्तब्धता
राक्षसों के दल से छिपने को मानो
अनुपस्थित हो जाता हूँ मैं
खूब ज़ोर की चल रही हवा
उसमें कागज़ की चिंदियों-से उड़ते-से लगते
मेरे घबराए भटकते ख़याल
जुड़ कर आपस में अब अचानक जिनमें
मात्र उलझा-अटका तारतम्य
भी कहीं अब संभव नहीं
दु:स्वप्न हो मानो
बढ़ जाती है काली कोठरी में
ख़यालों की तीक्षणता कभी इतनी
कि मानो छू ली हो हाथों ने
तीव्र बिजली की नंगी तार अनजाने
बिजली-सा झटका-सा लगता है ऐसे
चौंक जाती है नस-नस मेरी उस पल
समय की तेज़ धार
चौकनी आशंकित आतंकित रात
उसके अनुताप में मानो
चढ़ गया हो जैसे मीयादी बुख़ार
ओढ़े चिंता की चादर की छाया सारी रात
बन गया है कुछ अजीब अस्वस्थ स्वभाव
स्तब्ध, उचककर ऐसे में पूछती है
स्वत: पासा पलट कोई पुरानी पीड़ा
क्या यही होती है प्यार की परिणति
ऐसे ही होता है क्या
प्यार के उदगारों का हलाल ?
एक और विवश सुबह ...
दुस्वप्न के अंधकूप से बाहर आते ही
मुख पर असीम गंभीरता
आया मन में अचानक अत्यंत गुप्त
यह प्रश्नवाचक-सा अव्यवस्थित ख़याल
हलाल हो चुके हुए पशु की
आँखें कैसी होती होंगी ?
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
प्रिय भाई समर कबीर जी, इस मनभावन प्रशंसा के लिए हृदयतल से आपका आभार।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्द:,बहुत ख़ूब, हमेशा की तरह एक गम्भीर और प्रभावशाली सृजन, इस शानदार प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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