अनपेक्षित तज्रिबों को लीलती हुई
मन में सहसा उठते घिरते
उलझी रस्सी-से खयालों को ठेलती
गलियाँ पार करती चली आती थी तुम
तब साथ तुम्हारा था
साहस हमारा
तुम्हारी मनोहर महक
थी दमकती हवाओं का उत्साह
और तुम्हारे चेहरे की चमक
थी हमारी शाम की अजब रोशनी
और मैं ...
तुम्हारी बातें सुनते नहीं थकता था
हँसी के पट्टे पर कूदते-खेलते
बीच हमारे कोई सरहदें
सीमाएँ न थीं
समय के पल्लू में तब
सम्भावनाएँ थीं, साज़िशें न थीं
सोचता हूँ
अनमनी हुई शाम जब अपनी
लालटेन ले आती थी
उस पीली-पीली रोशनी में
तुम मेरे कंधे पर सिर टेके देर तक
तुम्हारी उँगलियाँ कुछ सोचती-सी
मेरे सीने की धड़कन पर रेंगती
रिश्ते का रहस्य खोजती-सी
गंभीर विचारों में गिरफ़्तार
भविष्य का हल खोजती-सी
शून्यवत बनती शाम में
बैठे-बैठे नया स्वैटर बुन लेती थीं
मुद्दतें हुईं अब हमें एक संग
उस शाम की जाती रोशनी को नापते
आत्मा से आत्मा की पाती लिखते
पर तुम्हारा बुना हुआ वह स्वैटर
तुम्हारी उँगलियाँ
मेरे सीने से अभी तक संबंध रखती
तीखी गहरी बिना नींद की इस रात
मेरी साँसों को तरतीब दे रही हैं
और लगता है, अन्यमनस्क
तुम भी बेसब्री से दूरियाँ पार कर कहीं
ज़िन्दगी के हिस्से का वह सदमा सहलाती
रात देर तक उसे समझने की कोशिश करती
गहरे दर्द की गाँठ खोल रही हो
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र विमल शर्मा ’विमल’ जी।
आदरणीय भाई समर कबीर जी, इस आत्मीय सराहना के लिए और सुझाव के लिए भी हार्दिक आभार। मैं अभी सुधार करता हूँ।
इतनी अच्छी सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र तेज वीर सिंह जी।
इतनी अच्छी सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र सुशील जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत उम्द: और प्रभावशाली रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'अनपेक्षित तजुर्बों को लीलती हुई'
इस पंक्ति में 'तजुर्बों' शब्द ग़लत
है,सहीह शब्द है "तज्रिबों" देखियेगा ।
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी। बेहतरीन प्रस्तुति।
और लगता है, अन्यमनस्क
तुम भी बेसब्री से दूरियाँ पार कर कहीं
ज़िन्दगी के हिस्से का वह सदमा सहलाती
रात देर तक उसे समझने की कोशिश करती
गहरे दर्द की गाँठ खोल रही हो..... वाह आदरणीय विजय निकोर जी अतीत के खूबसूरत लम्हों की परतें खोलती .... अंतर्मन के अहसासों की अभिव्यक्ति को शब्द दर शब्द अभिव्यक्त करती इस अप्रतिम रचना के लिए दिल से बधाई।
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