रात-अँधेरे सारी रात
टटोलते कोई एक शब्द
स्वयं में स्माविष्ट कर ले
जो तुम्हारे आने का उल्लास
चले जाने का विषाद
कभी बूँद-बूँद में लुप्त होती
खिलखिलाती रंग-बिरंगी हँसी
और प्यारी हिचकियाँ तुम्हारी
आँसू ढुलकाती, मेरी ओर ताकती
दीप-माला-सी तुम्हारी आँखें
कि मोहनिद्रा में जैसे
मेरे ओठों पर तुम
अपने शब्दों को खोज रही हो
यह प्रासंगकि नहीं है क्या
कि मैं रात-अँधेरे सारी रात
टटोल रहा हूँ वह एक शब्द
स्माविष्ट हो जिसके आवर्त में
तुम्हारी सारी उपरोक्त सर्ष्टि
पर घायल हताश रात में
अन्धकार की सीमा खोजते
विस्मय हत
हर नई सुबह यही जाना कि
बहुत कम थी सारी रात
तुम्हारे आने के सुख
और मजबूर चले जाने के दुख
को प्रथक करने के लिए
गहन धुँधलापन ओढ़े
आज जब मेरे समय के साँचे में
अवशेष पल फड़फड़ा रहे हैं
लिपट रही है मुझसे
तुम्हारे हृदय की दुखती हुई धड़कन
तुम्हारी वह कष्टमयी मजबूरी
बिखरते खयालों में बरसती बेचैनी
यह जानो प्रिय कि
तुम्हारे आँसुओं की नमी
अभी मेरी आँखों में बाकी है
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस आत्मीय सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र सुशील जी।
आत्मीय सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी।
वाह आदरणीय विजय निकोर जी हमेशा की तरह नायाब भावों के सैलाब को समेटे शानदार प्रस्तुति। दिल से बधाई सर।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत ख़ूब, वाह, लाजवाब रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई सरकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र श्याम नारायन जी
इस आत्मीय सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्द: और हमेशा की तरह प्रभावशाली सृजन, इस शानदार प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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