स्मृति शेष, बनी विशेष।
कभी शूल सी चुभती हैं,
कभी बन प्रसून महकती हैं।
कभी अश्रु बन छलकती हैं,
कभी शब्दों में ढलती हैं।
स्मृति शेष, बनी विशेष।
अशेष, अन्नत प्रवाह पीड़ा का,
बिसराये ना बिसरती हैं।
सब छूट गया सब टूट गया,
शेष स्मृति का अटूट बंधेज।
स्मृति शेष, बनी विशेष।
कुछ जीने का अरमान गया,
कुछ मरने का अरमान जगा।
कुछ लावा पश्चात्ताप का है,
ना दिखता है ना रिसता है।
स्मृति शेष, बनी विशेष।
अजीब वियोग का मंथन है
कुछ यादें अमृत बन जाती है
कुछ विष पीड़ा बन जाती है
इस पर भी दुनियां का पहरा है
फिर समय चक्र कहाँ ठहरा है?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय समर कबीर जी सादर प्रणाम! कविता की सराहना एवं उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवादI सर मार्गदर्शन के लिए विशेष आभारI
आदरणीय Dandpani Nahak जी कविता की सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद!
मुहतरमा डॉ. गीता चौधरी जी आदाब, अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'स्मृति शेष, बनी विशेष'
आपकी ये पंक्ति एक वचन में है,और बाक़ी सभी पंक्तियाँ बहुवचन में हैं,इस पंक्ति को यूँ कर लें तो बाक़ी पंक्तियों का ताल मेल भी ठीक होगा:-
"स्मृतियाँ शेष, बनीं विशेष"
आदरणीय सुश्री डॉ गीता चौधरी जी, अति गंभीर भावाव्यक्ति। 'स्मृति शेष, अति विशेष' ख़ूबसूरत व् सटीक शीर्षक। सुन्दर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें। सादर।
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