तरीफे उनकी क्यूँ लगती
जहर से भरी मीठी बातें
हर पिशुन/चुगलखोर की
झूठी बातें भी सच्ची लगती||
स्वार्थ की तह तक गिर
औछी हरकते करते रहते
भलाई का दामन औढकर
सहकर्मियों की बुराई वो करते||
दूसरों के काम में टांग अड़ाना
आदतों में शुमार उनकी
सहकर्मियों को आपस में भिड़ाकर
फिर निश्छल होने का ढोंग रचाते||
लाभ ना हो जाए कहीं किसी को
बुगले के जैसा ध्यान लगाते
एडी चोटी का ज़ोर लगा
अडचने पैदा खूब कराते
आने-जाने और खाने-पीने पर भी
गिद्ध की तरह वो नजरे रखते
मौका मिले उन्हे जब कुछ कहने का
ना समय गवाए सभी का दोष बताते||
अपने पन का अहसास जता
वक़्त आने पर मुखर वो जाते
भावनाओ को ठेस पहुँचा
अपने किए ना पछताते
मन की बात को लेकर सारी अफसरो को सहकर्मियों की सारी बात बताते||
मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
भाई विजय निकोरे आपने मेरी रचना के अपना समय निकाला उसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
अच्छे खयाल पिरोय हैं। बधाई, मित्र फूल सिंह जी।
आद0 फूल सिंह जी सादर अभिवादन। पहले तो सृजन पर बधाई। मित्र इस रचना को अगर आप नवगीत, अतुकांत, या किसी मानक छंद (या कम से कम समान मात्रा भार) पर लिखते तो और बढ़िया लगता। कविताएं सपाटबयानी ठीक नहीं लगतीं।
कबीर साहब को मेरा कोटि कोटि धन्यवाद कि आप अपना थोड़ा मूल्यवान समय मेरी रचना को देते है
जनाब फूल सिंह जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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