एक फूल दो है, माली
धर्म-कर्म की यही कहानी
आत्मा-परमात्मा में भेद करा
दुनियांदारी में हमे फसा-फसाकर, जन्म-मरण का चक्कर कटवाती ||
अहंकार रूपी ये पुत्र हमारा, धन रूपी सा भाई,
मोह रूपी ये पुत्रवधू, आशा रूपी ये स्त्री प्यारी
आसक्ति लगा के इनमे
कर्म बंधन से ना मुक्ति पाई||
ममतामयी माँ रूप बना ये, हम पर खूब ये, प्यार लुटाता
बहन बन ये जब भी आता, रक्षा का ये फर्ज़ सिखाता
ज्ञान का मार्ग दिखा हमे येँ
गुरु-पिता का भाव जताता,||
शरीर को अपनी आत्मा, समझ हम
चाह-चाह कर इससे, प्रेम जताते
कर्तव्यों में ही खोये रखते,
पर मोक्ष की अपने सोच ना पाते ||
“मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई, मित्र फूल सिंह जी
कबीर सर, मेरी रचनाओ को आपकी टिप्पणी का सदा इंतज़ार रहता इसके लिए मै बहुत शुक्र गुज़र हूँ
भाई लक्ष्मण को मेरी रचना के लिए आपने समय निकाला इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आ. भाई फूलसिंह जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
जनाब फूल सिंह जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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