दिन ढलते, शाम चढ़ते,
उसका डर बढ़ने लगता है,
क़िस्मत, दस्तक भी देगी और
भीनी यादें तूफान भी उठायेंगी ,
फिर भी होगा कुछ भी नया नहीं,
बस यह अहसास कराते हुए
कि वो किसी और पर मेहरबान है,
उसके पास से धीरे से सरक जाएगी
और चूम लेगी किसी और को।.............1
अटपटा दीवानापन सा,
महसूस तू करवाता है,
हर नए दिन,
हर नई शाम,
यकीन दिलाकर,
तू सिर्फ उसका है,
बाहों में किसी और की,
चला जाता है ।............ 2
ज़िन्दगी लिख रही,
हर पल इक नया फलसफा,
क्यों कर हो चले हो तुम,
इतने कमज़ोर-दिल से कि,
दर्द को सीने में बसा,
हर खुशी को कर देते हो फना।............ 3)
मौलिक व् अप्रकाशित।
Comment
आद0 usha जी सादर अभिवादन। बढ़िया पंक्तिया सृजित की आपने,, बधाई स्वीकार कीजिये।
आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब। आपकी सकारात्मक टिप्पणी से प्रोत्साहन मिला। आभार। सादर।
मुहतरमा ऊषा जी आदाब,अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय विजय शंकर सर, सही कहा आपने। मेरा प्रयास रहेगा की इन क्षणिकाओं को कविता का रूप देने का प्रयास करुँ। बधाई पर आपका हृदय से आभार। सादर।
आदरणीय सुश्री डॉo उषा जी , उलझनों में बिखरी इन पंक्तियों एक अच्छी कविता छिपी हुयी दिखाई देती है , सुन्दर , बधाई , सादर।
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