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अपने हर ग़म को वो अश्कों में पिरो लेती है
बेटी मुफ़लिस की खुले घर मे भी सो लेती है
मेरे दामन से लिपट कर के वो रो लेती है
मेरी तन्हाई मेरे साथ ही सो लेती है
तब मुझे दर्द का एहसास बहुत होता है
जब मेरी लख़्त-ए-जिगर आंख भिगो लेती है
मैं अकेला नहीं रोता हूँ शब-ए-हिज्राँ में
मेरी तन्हाई मेरे साथ में रो लेती है
अपने दुःख दर्द को मैला नहीं होने देती
अपनी आँखों से वो हर दर्द को धो लेती है
जब भी ख़ुश होके निकलता हूँ ‘रज़ा’ मैं घर से
मेरी मायूसी मेरे साथ में हो लेती है
_________________________Oct-19
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत ही सुन्दर रचना पेश की है, मित्र सलीम जी।हार्दिक बधाई।
आदरणीय शुशील सरना जी आपकी पुरख़ुलूस महब्बत का बेहद शुक्रिया।
भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहिब आपकी पुरख़ुलूस महब्बत का बेहद शुक्रिया।
आ. भाई सलीम जी, इस बेहतरीन मार्मिक ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
अपने हर ग़म को वो अश्कों में पिरो लेती है
बेटी मुफ़लिस की खुले घर मे भी सो लेती है
मेरे दामन से लिपट कर के वो रो लेती है
मेरी तन्हाई मेरे साथ ही सो लेती है
वाह आदरणीय सलीम साहिब वाह क्या खूब दर्दीले अहसासों को आपने लफ्ज़ अता किये हैं। इस बेहतरीन मार्मिक ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारक।
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