ना मर्म का मेरे भान किसी को, लेकिन फिर भी जिंदा हूँ
ना औरत, ना पुरुष हूँ, कहने को मैं किन्नर हूँ|
सारा समाज धुत्कार मै खाती, जैसे समाज पे अभिशाप कोई
सोलह शृंगार कर हर दिन सजती, जैसे सुहागिन औरत हूँ |
मात-पिता भी कलंक समझते, बदनामी का उनकी कारण हूँ
दुख-दर्द भी ना कोई पूछता, जैसी उनकी ना मै कोई हूँ |
ना रोजी-रोटी का साधन कोई, मांग माँग कर खाती हूँ
इज्जत आबरू का मान ना जग में, कभी-कभी शरीर पे भी दांव लगाती हूँ|
शादी प्रसंग में जा खुशी मनाते, नाच-नाच कर गाती हूँ
बच्चो के जन्म पर तालियाँ बजाती, दे आशीर्वाद, दुआ मै जाती हूँ |
घुट-घुट कर हर क्षण मैं जीती, भाग्य लेखी पर रोती हूँ
किस गुनाह की सजा ये पायी, ईश्वर से गुहार लगाती हूँ
ना हमदर्द ना कोई साथी, तन्हा जीवन मै जीती हूँ
हर पल मृत्यु की राह देखती, नर्क सी जिंदगी जीती हूँ
जीवन भर मै कटाक्ष को सहती, जूते मरने पर मै खाती हूँ
ना मेरा कोई अपना सारे जग में, पर सबकी मैं बन जाती हूँ
हसी-ठटोली मेरी करो ना, विनती हाथ जोड़कर करती हूँ
ना पुरुषो में गिनती मेरी, ना शरीर से औरत हूँ, मै अभागिन किन्नर हूँ |
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब फूल सिंह जी आदाब,किन्नर पर रचना का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
शीर्षक में 'अभागिन' शब्द मेरे ख़याल से उचित नहीं,क्योंकि किन्नर न स्त्री है न पुरुष,इस पर विचार करें ।
भाई सुरेन्द्र आपका बहुत बहुत धन्यवाद आपके सुझाव के लिये आपका बहुत शुक्रिया
आद0 फूल सिंह जी सादर अभिवादन। किन्नर आधारित इस रचना के लिए बधाई। इसे आप किसी विधा पर लिखते तो लय बेहतरीन आता
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