प्रतीक्षा
आँधी में पेड़ों से पत्तों का गिरना
पेड़ों की शाख़ों के टूटे हुए खण्ड गिनना
उड़ते बिखरे पत्तों से आंगन भर जाना
यह नज़ारा कोई नया नहीं है
फिर भी लगता है हर आँधी के बाद
नदियों पार “हमारे” उस पुल को चूमकर आई
यह आँधी मुझसे कुछ बोल गई
गिरे पत्तों की पीड़ा मुझमें कुछ घोल गई
हर आँधी की पहचान अलग, फैलाव नया-सा
कि जैसे अब की आँधी में नि:संदेह
कुलबुलाहट नई है, कोलाहल कुछ और है
मेरी ही गलती है हर गति को सह लेता हूँ
जानता हूँ काला फैलाव है दूरियों का सिर पर
आँधी के कोलाहल की बेचैनी में भी है भीतर
फैल रहा हर "कमरे" में सुनसान गहरा
गूँजती वेदना पर है मानों चेतना का पहरा
कराहती रहती हैं कई अधभूली अनकही बातें
सिकुड़ती उमीद में भी है पल रहा भोला विश्वास
आओगी तुम इक दिन ओढ़े अपनी वही हँसी
हवा में किलकारियाँ भरती, आँचल फैलाए
भटकती रहेंगी इसी इन्तज़ार में मेरी आँखें
एक और सवेरा होने तक तुम्हारी राह तकते
पत्ते इतने कि विस्तृत धुँध में झुरमुट तले
मटमैली शाम या रात पता न चले
आंगन में पत्ते कहाँ हैं, गड्ढे कहाँ हैं, रास्ता कहाँ है
खलबली के बावजूद भी किसी भी आँधी में
इसीलिए मैं द्वार बंद नहीं करता
अपने "सुनसान" में बैठा राह तकता हूँ
ऐसा न हो कि ज़माने की तरह तुम भी
वापस लौट आने का
रास्ता न पहचान पाओ
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीअर जी
प्रिय भाई जनाब विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक उम्द: रचना से नवाज़ा है आपने मंच को,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । बहुत अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
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