प्रकृति-सत्य
मेरे पिछवाड़े के पेड़ों के पत्ते
पतझर में अब पीले नहीं होते
ऋतु परिवर्तन से पहले ही, डरे-डरे
तन-मन हारे मारे-मारे उढ़ते फिरते
कि जैसे यह अकुलाते पत्ते नहीं हैं
हज़ारों घायल पक्षी एक संग मानो
पंख फड़फड़ाते, काँपते सिहर-सिहर
प्रचंड पूर्वी हवाएँ
मैदानों के फैलावों पर तैरती
और फिर उन्हीं मैदानों को चीरती
इनकी साँय-साँय धारदार औज़ार-सी
अनेकानेक पेड़ों की बाहों को काटती
टकरा रही हों मानो युद्ध में
योद्धाओं की नोकदार तलवारें
दायें से बायें, बायें से दायें, फिर बायें
सुनता हूँ अकथनीय पीड़ामय स्वर
पेड़ों के काँपते गिरते अटकते पत्तों से
आई हों हाँफ़ती मानो क्रोधित हवाएँ
पत्तों की अंतिम साँसों से पहले उनसे
कई सदियों पहले के हिसाब चुकाने
हैं भीतर हर मानव के उर में जैसे
गोपनीय प्रश्न जीवन के, कोई गणित
कोई हिसाब जो कभी पूरे नहीं होते
तभी तो लौट-लौट आती हैं शायद
साल पर साल यह हवाएँ फिर से
इन पेड़ों को कुछ और झंझोड़ने
मासूम पत्ते कुछ और गिराने
बन जाता है पिछवाड़े का आँगन मेरा
पराजित गिरे, कुछ सूखे कुछ भीगे
अनगिनत पत्तों की मौत का घर
दूर करने को प्रकृति और मेरे बीच
बिछा कोई भयंकर फ़ासला
चलते-चलते धीरे-धीरे सोचते हुए
छाती से कोई वज़न उतारते
अपने ही बनाए हुए
ज़िन्दगी के गड्ढे भरते
कोई और नई सम्भावी आशा लिए
बनाता हूँ आँगन मैं कोई नया रास्ता
सरक जाता है शाम का पीलापन
हँस पढ़ती है हवा
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, हमेशा की तरह एक बहतरीन रचना से नवाज़ा है आपने मंच को,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन।बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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