बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
जब चाहें तब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
दुनिया में सब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
ये दुनिया बेहतर हो दिन भर ऐसे काम करें
फिर सारी शब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
अट्ठारह घंटे खटते जो पूँजी की ख़ातिर
अपने साहब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
जैसे बचपन में करते थे बिन सोचे समझे
फिर बेमतलब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
नफ़रत का विष पी-पीकर जो जॉम्बी बन फिरते
वो भी यारब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
‘सज्जन’ इक दिन सदियों की नफ़रत से तंग आकर
सारे मज़हब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'अपने साहब इश्क़ करें तो कितना अच्छा हो'
इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है "साहिब",देखियेगा
बड़ी रदीफ़ क्या आपने अच्छी गजल पेश की है मित्र हार्दिक शुभकामनाएं
वाह..वाह..क्या कहने
इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई, आ. भाई सर्मेन्द्र जी ..
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