प्रथम मिलन की शाम
विचारों के जाल में उलझा
माथे पर हलका पसीना पोंछते
घबराहट थी मुझमें --
मैं कहीं अकबका तो न जाऊँगा
यकीनन सवाल थे उगल रहे तुम में भी
कैसा होगा हमारा यह प्रथम मिलन
अब तक दूरभाष पर करी वह बातें
मेरे खतों में लिखे वह स्नेह के उच्चारण
कहीं राख पर लिखे वह मात्र शब्द तो न थे
जल गए कागज़ पर के अक्षर-मात्र तो न थे
जो हवा का पहला झोंका आते ही बिखर जाएँ
हमारे स्पर्ष कहीं पहली सिहरन से पहले उड़ जाएँ
उफ़ !
प्रथम मिलन से पहले ही
नाग की तरह रह-रह कर फुफकार मारते
कितने प्राणघातक अग्निमय प्रश्न !
मैं रहा विचारों के जाल में नित जागता
गलतियाँ करने से डरता
अनिश्चितता के अन्धकार की अग्नि में
थी तुमको खो बैठने की चिंता भी गहरी
इसी द्वंद्व में लिख न सका मैं मन के ताने बाने
इस पर भी उभरता अनजान अनुच्चरित
शीतल विश्वास था तुममें मुझको, मेरी प्रिय
कि मिलते ही देखूँगा मुख पर तुम्हारे
स्नेह की अनमोल तृप्ति की दीप्ति
दूर हो जाएगी तुरंत दोनों के मन पर छाई
अकारण बढ़ती उभरती चिंता की गहराई
कुछ ऐसे ही बस से उतरी थी तू
भागती भीड़ के बीच निडर
और देखते ही मुझको
मेरे हाथ में अपनी उँगलियाँ गूँथती
आँचल में असीम आवेग की आग लिए
तुम्हारी आत्मीए बाहें सीमायों को समेटती
उफ़, वह अग्निमय आलिंगन
कि जैसे आतुर थी तुम्हारी धड़कन
सुनने को बस मेरे हृदय की धड़कन
स्वर में थी हल्की-सी कंपन
संबंध पर संदेह की हलकी-सी छाया
रिश्ता नया था, पर बहुत "अपना" था
मानों स्पर्ष-सुख से भरा वह सपना था
अत: कुछ भी अजनबी न लगा
मुझको, न तुमको
स्वीकार की पूर्णता, हँस दी कोई पुष्पलता
तुम्हारी आँखे मेरी आँखों में कुछ खोजती
मानो टिमटिमाते कितने बल्बों की रोशनी
जागती जगमगाती रही स्नेह की जिज्ञासा
यूँ विकसित हुआ हमारा वह प्रथम मिलन
वह शीत-वेला थी शीतल फुहारों-सी
प्रसन्न-चित्त, स्नेह से गाल पर गाल रखे
मेरे कानों में तुम्हारा वह भारी प्रश्न अचानक
" मेरे प्यार, मेरे विश्वास, तुम भीड़ में कहीं
बोलो, मुझसे दूर तो न सरक जाओगे ? "
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीर जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,बहुत उम्द: कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण जी।
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