त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
संजीव 'सलिल'
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
***
Comment
वाह वाह आदरणीय सर जी क्या सुन्दर रसधार बहाई है मजा आ गया पढ़ कर
ऋतुराज बसंत की अगवानी को उठे स्वर की आवृति इतनी लयात्मक है कि एक चित्र सा खिंचता जाता है. ध्रुवों के पाशों का आमंत्रण कितना आह्लादकारी होता है इसे शब्द-रूप देना इतना सरल नहीं जितनी सरलता से छंद-रचना में उभर कर आया है. पारस्परिक आकर्षण जब सुन्दरता के सात्विक तत्व को संतुष्ट करे तो यह पंक्ति उसका परिचायक हो उठती है - पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
आम्रकुंज के मतायेपन के मनोहारी वातावरण में सर्प-सर्पिणी के बिम्बों के माध्यम से निस्सृत लयात्मकता कवि के लालित्य बोध को सहज ही समक्ष लाती है. यह आपकी असंतृप्त रचनाधर्मिता ही है, आचार्यजी, जो छंद के माध्यम से सनातन सुन्दरता का शाश्वत आवाहन कर पा रही है.
गेयता और शिल्प के लिहाज से अति उन्नत छंदों पर सादर बधाई स्वीकार करें, आदरणीय. त्रिभंगी छंद का विन्यास अनुकरणीय तो है ही , इसका व्यवहार भी कोलाहलकारियों के लिए उदाहरण सदृश है.
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