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द्विपदियाँ; संजीव 'सलिल'

चंद द्विपदियाँ;
संजीव 'सलिल'
*
जब तक था दूर कोई इसे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***

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Comment

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Comment by Dr.Ajay Khare on February 13, 2013 at 4:18pm

bhai sahab aap to badia likhate he kintu aap jese logo ka dayit banta hai ki aap ham jese navodit logo ki rachna bhi pade v apni ray sujhav de .

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 13, 2013 at 1:04pm

जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..  सुन्दर भाव, भाई श्री संजीव सलिल जी, 
***                                                                    


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Comment by Saurabh Pandey on February 13, 2013 at 11:34am

सादर, आदरणीय .. .

Comment by sanjiv verma 'salil' on February 13, 2013 at 8:54am

सौरभ बिना 'सलिल' को, कोई पूछता नहीं.
पाई सुरभि गुलाब जल, अभिनव ये हो गया..


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Comment by Saurabh Pandey on February 12, 2013 at 11:13pm

फुटकर-फुटकर द्विपदियाँ क्या-क्या न कह गयीं !

आचार्यवर, मजा आ गया. मुझे आपकी पहली द्विपदी देर तक बाँधे रही.  सादर बधाइयाँ.

Comment by Abhinav Arun on February 12, 2013 at 1:51pm

आदरणीय श्री आचार्यवर बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना -

बस में नहीं दिल कि बस के फिर निकल सके. 
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
बेहद गहरी बात क्या कहने काव्य की यही सार्थकता है !!

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