गीत :
आशियाना ...
संजीव 'सलिल'
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा है।
मिले उतना ही लिखा है-
जहाँ जिसका आब-दाना ...
*
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
*
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुने खन-खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
*
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
*****
Comment
कब भरी है बोल गागर?,
रीतता क्या कभी सागर??
पाई जैसी त्याग वैसी
'सलिल' निर्मल श्वास चादर।
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना ...
आदरणीय सलिल जी
सादर
चल उड़ जा रे ,,
बधाई
संदीप जी, राम शिरोमणि जी, सौरभ जी, श्याम नारायण जी, राजेश जी, लक्षमण जी
आप की गुण ग्राहकता को सादर नमन.
रहे जिसमें ढाई आखर,
खुशनुमा है वही बाखर।
सुन खन-खन सतत जो-
कौन है उससे बड़ा खर?
छोड़ पद-मद की सियासत
ओढ़ भगवा-पीत बाना ...
बहुत सुंदर भाव हर बंद अपने में बेजोड़ है बहुत अच्छी लगी ये पंक्तियाँ तो
सादर बधाइयाँ, आदरणीय..............
लाये क्या?, ले जायेंगे क्या??,
कौन जाता संग किसके?
संग सब आनंद में हों,
दर्द-विपदा देख खिसकें।
भावना भरमा रहीं मन,
कामना कर क्यों ठगाना?...
सादर बधाइयाँ, आदरणीय.
अन्यमनस्कता या गुणातीत भाव. एक नकारात्मक तो दूसरा सर्वग्राही और उद्वेलित करता हुआ. आपके इस गीत का हर बंद निर्मोही हुआ मोहता है.
सादर बधाइयाँ, आदरणीय.
हंस उड़ चल बस वही तू
जहाँ है अंतिम ठिकाना .
बहुत सुन्दर आचार्य श्री अंतिम पड़ाव अंतिम लक्ष्य
साधुवाद इस रचना हेतु
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