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आदरणीय विजय भाई , बहुत सुन्दर चिंतन , प्रकृति से प्यार पर उसकी कृति से दूरी । लाजवाब रचना हुई है । आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर फिर से पढ़ा रचना को , सुन्दर रचना .. //प्रकृति प्रेमी है वह//...//प्रकृति की गोद में ही सुख पाता है//...बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,.....
बहुत घबड़ाता है ,...../सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह / लाजवाब ..गंभीर दर्शन , हार्दिक बधाई सर ! सादर
आदरणीय विजय सर सीधे सादे शब्दों में निहित गहन चिंतन की बात ....वाकई मनुष्य मनुष्य के लिए सबसे बड़ा रहस्य स्वयं है ..न तो मनुष्य दुसरे मनुष्य को ही जानता है न खुद को ही ..ये रचना मुझे बेहद पसंद आयी इस शानदार रचना के लिए ढेर सारे बढ़ाए सादर
विजय सर !
आपकी इस रचना में between the lines बहुत कुछ अन्तर्हित है i निम्नांकित पंक्तियो ने तो मेरे पाठक मन को झकझोर कर रख दिया i अनिवर्चनीय रचना है यह i सादर i
बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,
बहुत घबड़ाता है ,
उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,
सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह
बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,------बस यही एक पंक्ति इस रचना को विस्तार देती है ,जब इंसान प्रकृति से इतना प्यार करता है तो सर्वोत्तम कृति अर्थात इंसान ....को समझ नहीं पाता ,इंसानियत क्या है ?आज वो भ्रमित है रास्ता भटक गया है ,उसका अंत तो प्रकृति में ही विलीन होना तय है ...बहुत गहन उन्नत भाव से गुंथी रचना ..जिसके लिए हार्दिक बधाई आ० डॉ० विजय शंकर जी
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