2122 1122 1122 22/112
ये हमारी है दुआ शाद तू गुलफा़म रहे
दूर ही तुझसे सदा गर्दिश-ए-अय्याम रहे
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सारी दुनिया में तेरे इल्म की महके ख़ुश्बू
जब तलक चाँद सितारें हों तेरा नाम रहे
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इस तरह तेरे तसव्वुर में मगन हो जाऊँ
मुझको अपनों से न ग़ैरों से कोई काम रहे
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जब तेरी दीद को हम शहर में तेरे पहुंचें
अपने दामन से न लिपटा कोई इल्ज़ाम रहे
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तेरी ख़ुशहाली की हरपल ये दुआ करते हैं
तेरे दामन में ख़ुशी सुब्ह रहे शाम रहे
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हर क़दम मेरा उठे तेरी रज़ा की ख़ातिर
मेरे होंटो पे हमेशा तेरा पैगाम रहे
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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Comment
आद0 सलीम जी सादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने।बहुत बहुत मुबारक आपको।
हम सब की दुआ है कि जनाब समर साहब हमेशा स्वस्थ रहें। सादर
आप सब की दुआओं का नतीजा है कि फिर अपने प्रिय परिवार ओबीओ की ख़िदमात के लिए हाज़िर हूँ ।
मतले का सानी मिसरा यूँ करलें तो बहतर होगा:-
'दूर तुझसे ये सदा गर्दिश-ए-अय्याम रहे'
जनाब सलीम रज़ा साहिब , मतला बहुत अच्छा हो गया है ,ग़ज़ल में भी चार चांद लग गए हैं ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें। मश्वरे का मान देने का शुक्रिया।
बृजेश जी आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और हौसला अफज़ाई के लिए दिली शुक्रिया
अफ़रोज साहिब बहुत
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया
विजय साहिब आपका तहे दिल से शुक्रिया.
जनाब तस्दीक़ साहब,
आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और हर एक शेर को पढकर मशविरा और तारीफ़ के लिए शुक्रिया.. आप यूँ ही अपना करम नाचीज़ पर बनाए रखे....
दोबारा मतला आपको नज़र है.. दोबारा दूआएँ चाहूंगा...
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