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मेरे  वतन पे  आते हैं सारे जहाँ से लोग - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212
.......
मेरे  वतन  में  आते  हैं  सारे  जहाँ  से लोग.
रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.
..
लगता है कुछ खुलुसो  महब्बत मे है कमी.
क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.
..
तेरा  ख़ुलूस  तेरी  महब्बत  को  देखकर.
जुड्ते  गये हैं आके  तेरे  कारवाँ  से लोग.
..
कैसा  ये  कह्र   कैसी   तबाही   है    खुदा.
बिछ्डे हुए हैं अपनो से अपने मकाँ से लोग.
..
हिन्दी अगर है जिस्म तो उर्दू है उसकी जान .
करते  हैं  प्यार आज भी  दोनों ज़बाँ से लोग.
..
नज़्र-ए-फ़साद  होता रहा घर  मेरा '' रज़ा ''
निकले नहीं मुहल्ले में अपने मकां से लोग.
...........
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 5, 2017 at 10:59am
धड़कने सांसें जवानी जिंदगी आपकी.
Comment by SALIM RAZA REWA on October 5, 2017 at 10:58am
जनाब,
धड़कन मेरी उर्दू . या
सांसें मेरी उर्दू किया जा सकता है क्या...
Comment by Samar kabeer on October 5, 2017 at 10:41am
'उर्दू है धड़कनें' ठीक है ?ग़ौर कीजिये ।
'दरमियाँ'का अर्थ है 'बीच'अब अगर यूँ कहेंगे कि 'तेरे बीच'तो ग़लत होगा,और यूँ कहेंगे कि 'तेरे मेरे बीच'या 'अपने बीच'तो सही होगा ।
थोड़ा सा ग़ौर करें समझ लेंगे,मेरी पिछली टिप्पणी एक बार ध्यान से पढ़ें ।
Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 8:44pm

आदरणीय राज़ नवादवी जी
आपकी नज़रे इनायत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया ,

Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 8:43pm

आदरणीय शौरभ जी
आपकी इनायत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
आपके पुराने कमेंट का जबाब नहीं दे सका था माफ़ी चाहता हूँ।

Comment by राज़ नवादवी on October 4, 2017 at 7:19pm

आदरणीय सलीम रज़ा साहब, ख़ूबसूरत ग़ज़ल कहने के लिए हार्दिक बधाई. खासकर ये अशआर:

हिन्दी है जिस्मों जान तो उर्दू है धड़कनें .
करते हैं प्यार आज भी दोनों ज़बाँ से लोग.
..
नज़रे फ़साद होता रहा घर  मेरा ''रज़ा''
निकले नहीं मुहल्ले में अपने मकां से लोग.

वाह वाह, सादर 

Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 6:22pm
बांकी में को पे. या पे को में कर लेंगे.
नवाज़िश
Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 6:21pm
जनाबे मुहतरम समर साहिब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
दिल में कुछ सुबा है जैसे....
हिन्दी है जिस्‍म जान.. तो हमने यहां दो लिया जिस्‍म भी जान भी यानी बहुबचन फिर उर्दू में भी धड़कने लिया है तो बैलेंस तो हुआ ना,
फिर कैसे 1 बचन और बहुबचन हुआ...
दूसरा....
तेरे दरमियाँ से लोग.. तो साहब हमने दरमियाँ कहा और लोग कहा तो लोग बैठे होंगे तो ना उठेंगे मतलब यहाँ भी लोग बहुबचन हुआ फिर ग़लती समझ नहीं पाया. समझाने की ..मेहरबानी..
Comment by Samar kabeer on October 4, 2017 at 2:55pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतला यूँ कर लें :-
'मेरे वतन में आते हैं सारे जहाँ से लोग
रहते हैं इस जमीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग'

'क्यों उठ के जा रहे हैं तेरे दरमियाँ से लोग'
इस मिसरे में 'तेरे'शब्द ग़लत है,'दरमियाँ'के लिए दो लोगों का होना ज़रूरी है,ये मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'क्यों उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग'
एक बात ये कि ग़ज़ल में जहाँ 'मोहब्बत'शब्द आया है उसे "महब्बत"करलें ।
'कैसा ये क़ह्र कैसी तबाही है या ख़ुदा'
इस मिसरे में 'या'की जगह 'ऐ' कर लें,क्योंकि 'या'शब्द कल्मए हैरत के लिए बोला जाता है ।
'हिन्दी है जिस्मों जान तो उर्दू है धड़कनें'
इस मिसरे में 'धड़कनें'बहुवचन है, इसलिये इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'हिन्दी अगर है जिस्म तो उर्दू है उसकी जान'
मक़्ते के ऊला मिसरे में 'नज़रे फ़साद'को "नज़्र-ए-फ़साद" कर लें ।
Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 11:34am
आ. नीलेश नूर साहिब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,

कृपया ध्यान दे...

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