तृप्ति भी मिलती नहीं औ द्वंद भी कुछ इस तरह है
सोचना क्या? छोड़ना क्या? कुछ नहीं बस में हमारे
साथ किसके क्या रहा है छोड़कर धरती गगन को
फूल जो भी आज हैं वे छोड़ देंगे कल चमन को
मौत पर होवें दुखी या जन्म पर खुशियाँ मनाएँ
हार से हम हार जाएँ या लड़े औ जीत जाएँ
ज़िन्दगी के राज़ गहरे दूर जितने चाँद तारे
सोचना क्या? छोड़ना क्या? कुछ नहीं बस में हमारे
हर पतन के बाद ही होता जगत उत्थान भी है
शांति की ही गोद में पलता बड़ा तूफान भी है
पर्वतों के बीच से ही धार सरिता की बही है
मुश्किलों के पार जाकर ज़िन्दगी चलती रही है
जीत मन ही जीतता है और मन ही हार हारे
सोचना क्या? छोड़ना क्या? कुछ नहीं बस में हमारे
धन कमाया है यहाँ यह सोचना भी भूल यारो
मोह की जकड़न चुभाए हर समय ही शूल यारो
मृग सरीखा खोजते हम गन्ध का उद्गम कहाँ है
झाँकते ख़ुद के न अंदर कुंडली बैठी जहाँ है
डूबता रहता सफ़ीना देखते रहते किनारे
सोचना क्या? छोड़ना क्या? कुछ नहीं बस में हमारे
नाथ सोनांचली
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आद0 समर कबीर साहब सादर प्रणाम। रचना को पोस्ट करने के बाद आपकी उपस्थिति का मुझे सदैव इतंजार रहता है। आपकी टिप्पणी मेरे लिए आशीष है। हृदयतल से आभार आपका
जनाब नाथ सोनांच्ली जी आदाब, अच्छा गीत लिखा है आपने , इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
आद0 अमीरुद्दीन 'अमीर" साहब सादर अभिवादन। गीत आपने पसन्द किया, लिखना सार्थक हो गया हृदयतल से आभार व्यक्त करता हूँ।
आद0 देवेश जी सादर अभिवादन सँग आभार आपका
आदरणीय नाथ सोनांचली जी आदाब, शानदार गीत की रचना पर बधाई स्वीकारें। गीत की हर-एक पंक्ति आभामय हुई है।
"हर पतन के बाद ही होता जगत उत्थान भी है
शांति की ही गोद में पलता बड़ा तूफान भी है
पर्वतों के बीच से ही धार सरिता की बही है
मुश्किलों के पार जाकर ज़िन्दगी चलती रही है" - 'अद्भुत'
बहुत ख़ूब, बेहतरीन।
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