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             ग़ज़ल 

लगती है बाज़ार गुज़रते हैं आदमीं 
हर रोज़ बिकने खड़े होते हैं आदमीं 

उठते हैं हर सुबह जाने क्या सोचकर 
इस पेट के आगे पर झुकते  हैं आदमीं 

तपती दोपहरी में जब लगती है प्यास 
बुझे ए कैसे यही सोचते हैं आदमीं 

बैठकर खामोश यूँ  हीं जलती रेत पर 
अतीत,वर्त्तमान में खोते हैं आदमीं 

दुनिया होगी मुकम्मल कभीं तो अपनीं 
इसी कश्मकश में अब जीते हैं आदमीं 

बंधती  है आश यूँ तदवीर के सहारे
तकदीर से कहीं तो हारते हैं आदमीं  

कहता है तुझसे "रवि" ऐ खुदा देख जरा 
राह में पड़े हुए ना सो जाएँ ये आदमीं 

                        अतेन्द्र कुमार सिंह "रवि"

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Comment by वीनस केसरी on December 26, 2011 at 11:52pm

रचना भावों को सुन्दरता से अभिव्यक्त कर रही है
सुन्दर प्रयास किया है
रचना को कुछ समय और देने की आवश्यकता है


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 26, 2011 at 9:44pm

अतेन्द्र जी ग़ज़ल अच्छी कही है मकता को छोड़ सभी शे'र रदीफ़ और काफिये की कसौटी पर खरे है, मकता में आपने काफिया और रदीफ़ दोनों गड़बड़ कर दिए है, रदीफ़ ---है आदमी की जगह ये आदमी और काफिया ते की जगह एँ ले लिए है , बहरहाल प्रयास सराहनीय है | दाद कुबूल कीजिये |

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