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आ. ममता जी, अभिवादन। सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
आदरणीय सर सादर नमन 🙏
मुझसे गलती से आपके कमेन्ट के साथ कई लोगों के कमेंट डिलीट हो गए इसके लिए क्षमा चाहती हूँ आपने ग़ज़ल को संवारने के लिए बहुत अच्छे सुझाव दिए हैं बहुत बहुत शुक्रिया आपका 🌺🌺
मै सुधार करती हूँ 🙏
मुहतरमा ममता गुप्ता जी आदाब, इससे पहले भी कमेंट किया था जो आपकी ग़लती से डिलीट हो गया ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'बे सरो-पाई है क्या और बे घरी क्या चीज़ है'
इस मिसरे में 'बे सरोपाई' कोई शब्द नहीं है,एक शब्द है 'बे सरोपा' इसका अर्थ है,जिसका कोई सर पैर न हो, दूसरा शब्द है 'बे घरी' ये शब्द भी मेरी डिक्शनरी में तो नहीं है,बे घर ज़रूर है,उचित लगे तो इस मिसरे को यूँ कह सकती हैं:-
'बे सरो सामानी है क्या मुफ़लिसी क्या चीज़ है'
'काश रब हम को भी उन के जैसी दे देता कशिश
हुस्न वालों को बताते तश्नगी क्या चीज़ है'
इस शे'र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं, क्योंकि ऊला में आप उनके जैसी कशिश माँग रही हैं और सानी में तिश्नगी का ज़िक्र कर रही हैं, उचित लगे तो तिश्नगी की जगह "दिलकशी" कर लें ।
एक बात का हमेशा ध्यान रखें कि ग़ज़ल में किसी तरह के भी विराम चिन्हों का प्रयोग नहीं किया जाता ।
कुछ टंकण त्रुटियाँ दुरुस्त करें:-
राहे--'राह-ए-'
बन्दगी--'बंदगी'
चेहरा--'चहरा'
ख़यालो ख़्वाब--'ख़याल-ओ-ख़्वाब'
कर्बो ग़म--'कर्ब-ओ-ग़म'
आदरणीय @Euphonic Amit उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया आपका
अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई
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