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अंदाज़ क्या खूब हैं उनकी नज़रों के या रब,

किस अंदाज़ से वो नज़र अंदाज़ किया करते हैं |
                    -x-
अदा होती गयीं ज्यों-ज्यों वफ़ा की किश्तें,
और भी साफ़ होते गए स्वार्थ के रिश्ते |
                    -x-
एक बस में बैठ, माँ तो चली गयी अपने घर,
मेरा मन अब भी रोता भटकता, बस-स्टैंड पर |
                    -x-
दिन भर भटकता रहा मन एक व्यथित-पथिक सा,
शाम को थक कर बैठ गया मन, शोषित दलित सा |
                   -x-
पलकें उठाओ के सुबह चले, अब मान भी जाओ के सुबह चले,
कब तलक रूठे रहोगे हमसे तुम, ज़रा तो मुस्कुराओ के सुबह चले |

© AjAy Kum@r

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Comment by AjAy Kumar Bohat on April 13, 2012 at 9:15am

बहुत बहुत धन्यवाद राजेश जी हौसला अफजाही  के  लिए... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 13, 2012 at 8:51am
अदा होती गयीं ज्यों-ज्यों वफ़ा की किश्तें,
और भी साफ़ होते गए स्वार्थ के रिश्ते |
       bahut umda sher....bahut achche sher likhe hain aapne daad kabool karen.
Comment by AjAy Kumar Bohat on April 13, 2012 at 8:44am

बहुत बहुत शुक्रिया परम आदरनिये योगराज जी,  सतीश जी , सौरभ जी...

मैं आभारी हूँ आपका  ...
Comment by satish mapatpuri on January 8, 2012 at 1:15am

अंदाज़ क्या खूब हैं उनकी नज़रों के या रब,

किस अंदाज़ से वो नज़र अंदाज़ किया करते हैं |
बहुत खूब अजय जी ............... दाद कुबूल करें

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 7, 2012 at 10:46pm

पहले शे’र की मुलामियत ने वाकई मन मोह लिया. बहुत-बहुत बधाई  अजयजी.

 

 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 7, 2012 at 9:12pm

//अंदाज़ क्या खूब हैं उनकी नज़रों के या रब,

किस अंदाज़ से वो नज़र अंदाज़ किया करते हैं |//
.
अय हय हय हय अजय भाई - वाह . 

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